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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुढे अणण्णमविसेसं। *अपदेससंतमज्झं पस्सदि जिणसासणं सव्वं ।। १५ ।। यः पश्यति आत्मानम अबद्धस्पृष्टमनन्यमविशेषम। अपदेशसान्तमध्यं पश्यति जिनशासनं सर्वम्।। १५ ।। येयमबद्धस्पृष्टस्यानन्यस्य नियतस्याविशेषस्यासंयुक्तस्य चात्मनोऽनुभूतिः सा खल्वखिलस्य जिनशासनस्यानुभूतिः, श्रुतज्ञानस्य स्वयमात्मत्वात; ततो ज्ञानानुभूतिरेवात्मानुभूतिः। किन्तु तदानीं सामान्यविशेषाविर्भावतिरोभावाभ्यामनुभूयमानमपि ज्ञानमबुद्धलुब्धानां न स्वदते। तथा हि-यथा विचित्रव्यञ्जनसंयोगोपजातसामान्यविशेषतिरोभावाविर्भावाभ्यामनुभूयमानं लवणं लोकानामबुद्धानां व्यञ्जनलुब्धानां स्वदते, न पुनरन्यसंयोग-शून्यतोपजातसामान्यविशेषाविर्भावतिरोभावाभ्याम्; अनबद्धस्पृष्ट , अनन्य, जो अविशेष देखे आत्मको, वो द्रव्य और जु भाव, जिनशासन सकल देखे अहो।।१५।। गाथार्थ:- [ यः ] जो पुरुष [ आत्मानम् ] आत्माको [ अबद्धस्पृष्टम् ] अबद्धस्पृष्ट , [अनन्यम् ] अनन्य, [अविशेषम् ] अविशेष (तथा उपलक्षणसे नियत और असंयुक्त) [पश्यति ] देखता है वह [ सर्वम् जिनशासनं ] सर्व जिनशासनको [ पश्यति ] देखता है,-जो जिनशासन ['अपदेशसान्तमध्यं] बाह्य द्रव्यश्रुत तथा अभ्यंतर ज्ञानरूप भावश्रुतवाला है। टीका:- जो यह अबद्धस्पृष्ट , अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त ऐसे पाँच भावस्वरूप आत्माकी अनुभूति है वह निश्चयसे समस्त जिनशासनकी अनुभूति है, क्यों कि श्रुतज्ञान स्वयं आत्मा ही है। इसलिये ज्ञानकी अनुभूति ही आत्माकी अनुभूति है। परंतु अब वहाँ, सामान्य ज्ञानके आविर्भाव (प्रगटपना) और विशेष ( ज्ञेयाकार ) ज्ञानके तिरोभाव (आच्छादन) से जब ज्ञानमात्रका अनुभव किया जाता है तब ज्ञान प्रगट अनुभवमें आता है तथापि जो अज्ञानी हैं, ज्ञेयोमें आसक्त है उन्हें वह स्वादमें नहीं आता। यह प्रगट दृष्टांतसे बतलाते हैं : जैसे अनेक प्रकारके शाकादि भोजनोंके संबंधसे उत्पन्न सामान्य लवणके तिरोभाव और विशेष लवणके आविर्भावसे अनुभवमें आनेवाला जो (सामान्यके तिरोभावरूप और शाकादि के स्वाद भेदसे भेदरूपविशेषरूप) लवण है उसका स्वाद अज्ञानी, शाक लोलुप मनुष्योंको आता है किन्तु अन्यकी संबंधरहिततासे उत्पन्न सामान्यके आविर्भाव और विशेषके तिरोभावसे अनुभवमें आनेवाला जो एकाकार अभेदरूप लवण है उसका स्वाद नहीं आता; * पाठान्तर : अपदेससुत्तमज्झं। १. अपदेश = द्रव्यश्रुत; सान्त = ज्ञानरूपी भावश्रुत। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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