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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पूर्वरंग ४५ अथ च यदेव विशेषाविर्भावेनानु-भूयमानं ज्ञान तदेव सामान्याविर्भावेनापि। तथा विचित्रज्ञेयाकारकरम्बितत्वोपजातसामान्यविशेषतिरोभावा-विर्भावाभ्यामनुभूयमानं ज्ञानमबुद्धानां ज्ञेयलुब्धानां स्वदते, न तदेव पुनरन्यसंयोगशून्यतोपजातसामान्यविशेषाविर्भावतिरोभावाभ्याम्; अथ च यदेव विशेषाविर्भावेनानुभूयमानं ज्ञान सामान्याविर्भावेनापि । अलुब्धबुद्धानां तु यथा सैन्धवखिल्यो-S पुनरन्यसंयोगशून्यतोपजातसामान्य-विशेषाविर्भावतिरोभावाभ्याम्; अथ च यदेव विशेषाविर्भावेनानुभूयमानं लवणं तदेव सामान्याविर्भावेनापि । तथा न्यद्रव्यसंयोगव्यवच्छेदेन केवल एवानुभूयमानः सर्वतोऽप्येकलवणरसत्वाल्लवणत्वेन स्वदते, तथात्मापि परद्रव्यसंयोगव्यवच्छेदेन केवल एवानुभूयमानः सर्वतोऽप्येकविज्ञानघनत्वात् ज्ञानत्वेन स्वदते। और परमार्थसे देखा जाये तो, विशेषके आविर्भावसे अनुभवमें आनेवाला (क्षाररसरूप ) लवण ही सामान्यके आविर्भावसे अनुभवमें आनेवाला ( क्षाररसरूप लवण है। इसप्रकार—अनेक प्रकारके ज्ञेयोंके आकारों के साथ मिश्ररूपतासे उत्पन्न सामान्यके तिरोभाव और विशेषके आविर्भावसे अनुभवमें आनेवाला ( विशेषभावरूप, भेदरूप, अनेकाकाररूप) ज्ञान वह अज्ञानी, ज्ञेय - लुब्ध जीवोंके स्वादमें आता है किन्तु अन्य ज्ञेयाकारकी संयोगरहिततासे उत्पन्न सामान्यके आविर्भाव और विशेषके तिरोभावसे अनुभवमें आनेवाला एकाकार अभेदरूप ज्ञान स्वादमें नहीं आता; और परमार्थसे विचार किया जाये तो, जो ज्ञान विशेषके आविर्भावसे अनुभवमें आता है वही ज्ञान सामान्यके आविर्भावसे अनुभवमें आता है। अलुब्ध ज्ञानियोंको तो, जैसे सैंधवकी डली, अन्यद्रव्यके संयोगका व्यवच्छेद करके केवल सैंधवका ही अनुभव किये जानेपर, सर्वतः एक क्षाररसत्वके कारण क्षाररूप स्वादमें आती है उसीप्रकार आत्मा भी परद्रव्यके संयोगका व्यवच्छेद करके केवल आत्माका ही अनुभव किये जानेपर, सर्वतः एक विज्ञानघनताके कारण ज्ञानरूपसे स्वादमें आता है। भावार्थ:- यहाँ आत्माकी अनुभूति को ही ज्ञानकी अनुभूति कहा गया है। अज्ञानीजन ज्ञेयोमें ही - इन्द्रियज्ञानके विषयोंमें ही - लुब्ध हो रहे हैं; वे इन्द्रियज्ञानके विषयोंसे अनेकाकार हुए ज्ञानको ही ज्ञेयमात्र आस्वादन करते है परंतु ज्ञेयोसे भिन्न ज्ञानमात्रका आस्वादन नहीं करते। और जो ज्ञानी है, ज्ञेयोंमें आसक्त नहीं हैं, वे ज्ञेयों से भिन्न एकाकार ज्ञानका ही आस्वाद लेते हैं, जैसे शाकोंसे भिन्न नमककी डलीका क्षारमात्र स्वाद आता है, उसीप्रकार आस्वाद लेते हैं, क्योंकि जो ज्ञान है सो आत्मा है और जो आत्मा है सो ज्ञान है। इसप्रकार गुण - गुणीकी अभेद दृष्टिमें आनेवाला सर्व परद्रव्योंसे भिन्न, अपनी पर्यायोंमें एकरूप, निश्चल, अपने गुणोंमें एकरूप, परनिमित्तसे उत्पन्न हुए भावोंसे भिन्न अपने स्वरूपका अनुभव, ज्ञानका अनुभव है, और यह अनुभवन भावश्रुतज्ञानरूप जिनशासनका अनुभवन है। शुद्धनयसे इसमें कोई भेद नहीं हैं। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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