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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
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निर्भरस्वभाव सुस्थितनिराकुलात्मरूपतया परमानन्द-शब्दवाच्यमुत्तममनाकुलत्वलक्षणं सौख्यं स्वयमेव भविष्यतीति।
(अनुष्टुभ् ) इतीदमात्मनस्तत्त्वं ज्ञानमात्रमवस्थितम्। अखण्डमेकमचलं स्वसंवेद्यमबाधितम्।। २४६ ।।
परिपूर्ण स्वभाव में सुस्थित और निराकुल (-आकुलता बिनाका) होने से जो ( सौख्य ) 'परमानंद' शब्दसे वाच्य है, उत्तम है और अनाकुलता-लक्षणयुक्त है ऐसा सौख्यस्वरूप स्वयं ही हो जायेगा।
भावार्थ:-इस शास्त्रका नाम समयप्राभृत है। समय अर्थ है पदार्थ, अथवा समय अर्थात् आत्मा। उसका कहनेवाला शास्त्र है। और आत्मा तो समस्त पदार्थों का प्रकाशक है। ऐसे विश्वप्रकाशक आत्माको कहता हुआ होनेसे यह समयप्राभृत शब्दब्रह्मके समान है; क्योंकि जो समस्त पदार्थोका कहनेवाला होता है उसे शब्दब्रह्म कहा जाता है। द्वादशांगशास्त्र शब्दब्रह्म है और इस समयप्राभूतशास्त्रको भी शब्दब्रह्मकी उपमा दी गई है। यह शब्दब्रह्म ( अर्थात् समयप्राभृतशास्त्र) परब्रह्मको (अर्थात् शुद्ध परमात्माको) साक्षात् दिखाता है। जो इस शास्त्रको पढ़कर उसके यथार्थ अर्थमें स्थित होगा, वह परब्रह्मको प्राप्त करेगा; और उससे जिसे ‘परमानंद' कहा जाता है ऐसे उत्तम, स्वात्मिक, स्वाधीन, बाधारहित, अविनाशी सुखको प्राप्त करेगा। इसलिये हे भव्य जीवों! तुम अपने कल्याणके लिये इसका अभ्यास करो, इसका श्रवण करो, निरंतर इसका ही स्मरण और ध्यान करो, कि जिससे अविनाशी सुखकी प्राप्ति हो। ऐसा श्री गुरुओंका उपदेश है।
अब इस सर्वविशुद्धज्ञानके अधिकारकी पूर्णताका कलशरूप श्लोक कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [इति इदम् आत्मनः तत्त्वं ज्ञानमात्रम् अवस्थितम् ] इसप्रकार यह आत्माका तत्त्व ( अर्थात् परमार्थभूत स्वरूप) ज्ञानमात्र निश्चित हुआ- [अखण्डम् ] कि जो (आत्माका) ज्ञानमात्र तत्त्व अखंड है ( अर्थात् अनेक ज्ञेयाकारोंसे और प्रतिपक्षी कर्मोसे खंड खंड दिखाई देता है तथापि ज्ञानमात्रमें खंड नहीं है), [ एकम् ] एक है ( अर्थात् अखंड होनेसे एकरूप है), [अचलं] अचल है ( अर्थात् ज्ञानरूपसे चलित नहीं होता-ज्ञेयरूप नहीं होता), [स्वसंवेद्यम् ] स्वसंवेद्य है ( अर्थात् अपनेसे ही ज्ञाता होने योग्य है), [अबाधितम् ] और अबाधित है (अर्थात् किसी मिथ्यायुक्तिसे बाधा नहीं पाता)।
भावार्थ:-यहाँ आत्माका निज स्वरूप ज्ञान ही कहा है इसका कारण यह है:आत्मामें अनंत धर्म हैं; किन्तु उनमें कितने ही तो साधारण हैं, इसलिये वे
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