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________________ ५७८ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार जो समयपाहुडमिणं पढिदूणं अत्थतच्चदो णादुं । अत्थे ठाही चेदा सो होही उत्तमं सोक्खं ।। ४१५ ।। यः समयप्राभृतमिदं पठित्वा अर्थतत्त्वतो ज्ञात्वा। अर्थे स्थास्यति चेतयिता स भविष्यत्युत्तमं सौख्यम् ।। ४१५ ।। यः खलु समयसारभूतस्य भगवतः परमात्मनोऽस्य विश्वप्रकाशकत्वेन विश्वसमयस्य प्रतिपादनात् स्वयं शब्दब्रह्मायमाणं शास्त्रमिदमधीत्य, विश्वप्रकाशनसमर्थपरमार्थभूतचित्प्रकाशरूपमात्मानं निश्चिन्वन् अर्थतस्तत्त्वतश्च परिच्छिद्य, अस्यैवार्थभूते भगवति एकस्मिन् पूर्णविज्ञानघने परमब्रह्मणि सर्वारम्भेण स्थास्यति चेतयिता, स साक्षात्तत्क्षणविजृम्भमाणचिदेकरस [ इदम एकम् अक्षयं जगत् - चक्षः ] यह एक ( - अद्वितीय) अक्षय चक्षु ( - समयप्राभृत) [ पूर्णताम् याति ] पूर्णताको प्राप्त होता है । भावार्थ:-यह समयप्राभृत ग्रंथ वचनरूपसे तथा ज्ञानरूपसे- दोनों प्रकारसे जगतको अक्षय (अर्थात् जिसका विनाश न हो ऐसे ) अद्वितीय नेत्र समान है, क्योंकि जैसे नेत्र घटपटादिको प्रत्यक्ष दिखलाता है, उसीप्रकार समयप्राभृत आत्माके शुद्ध स्वरूपको प्रत्यक्ष अनुभवगोचर दिखलाता है । २४५ । अब भगवान कुंदकुंदाचार्यदेव इस ग्रंथको पूर्ण करते हैं इसलिये उसकी महिमाके रूप में उसके अभ्यास इत्यादिका फल गाथामें कहते हैं: यह समयप्राभृत पठन करके जान अर्थ अरु तत्त्वसे । ठहरे अरथमें जीव जो वो, सौख्य उत्तम परिणमे ।। ४९५ ।। गाथार्थ:- [ यः चेतयिता ] जो आत्मा ( - भव्य जीव) [ इदं समयप्राभृतम् पठित्वा ] इस समयप्राभृतको पढ़कर, [ अर्थतत्त्वतः ज्ञात्वा ] अर्थ और तत्त्वसे जानकर, [ अर्थे स्थास्यति ] उसके अर्थमें स्थित होगा, [ सः ] वह [ उत्तमं सौख्यम् भविष्यति ] उत्तम सौख्यस्वरूप होगा। टीका:-समयसारभूत भगवान परमात्माका - जो कि विश्वका प्रकाशक होनेसे विश्वसमय है उसका - प्रतिपादन करता है इसलिये जो स्वयं शब्दब्रह्मके समान है ऐसे इस शास्त्रको जो आत्मा भलीभाँति पढ़कर, विश्वको प्रकाशित करने में समर्थ ऐसे परमार्थभूत, चैतन्य-प्रकाशरूप आत्माका निश्चय करता हुआ ( इस शास्त्रको ) अर्थसे और तत्त्वसे जानकर, उसीके अर्थभूत भगवान एक पूर्णविज्ञानघन परमब्रह्ममें सर्व उद्यमसे स्थित होगा, वह आत्मा, साक्षात् तत्क्षण प्रगट होनेवाले एक चैतन्यरस से Please inform us of any errors on [email protected]
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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