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सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार
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यतो द्रव्यलिङ्गं न मोक्षमार्गः, ततः समस्तमपि द्रव्यलिङ्गं त्यक्त्वा दर्शनज्ञानचारित्रेष्वेव , मोक्षमार्गत्वात् , आत्मा योक्तव्य इति सूत्रानुमतिः।
(अनुष्टुभ् ) दर्शनज्ञानचारित्रत्रयात्मा तत्त्वमात्मनः। एक एव सदा सेव्यो मोक्षमार्गो मुमुक्षुणा।। २३९ ।।
मोक्खपहे अप्पाणं ठवेहि तं चेव झाहि तं चेय। तत्थेव विहर णिचं मा विहरसु अण्णदव्वेसु।। ४१२ ।।
टीका:-क्योंकि द्रव्यलिंग मोक्षमार्ग नहीं है, इसलिये समस्त द्रव्यलिंगका त्याग करके दर्शनज्ञानचारित्रमें ही, वह ( दर्शनज्ञानचारित्र) मोक्षमार्ग होनेसे , आत्माको लगाना योग्य है-ऐसी सूत्रकी अनुमति है।
भावार्थ:-यहाँ द्रव्यलिंगको छोड़कर आत्माको दर्शनज्ञानचारित्रमें लगानेका वचन है वह सामान्य परमार्थ वचन है। कोई यह समझेगा कि मुनि-श्रावकके व्रतोंके छुड़ानेका उपदेश है। परंतु ऐसा नहीं है। जो मात्र द्रव्यलिंगको ही मोक्षमार्ग जानकर वेश धारण करते हैं, उन्हें द्रव्यलिंगका पक्ष छुड़ानेका उपदेश दिया है कि-वेशमात्र से( वेशमात्रसे, बाह्यव्रतमात्रसे) मोक्ष नहीं होता। परमार्थ मोक्षमार्ग तो आत्माके परिणाम जो दर्शन-ज्ञान-चारित्र है वही हैं। व्यवहार आचारसूत्रके कथनानुसार जो मुनि श्रावकके बाह्य व्रत हैं, वे व्यवहारसे निश्चयमोक्षमार्गके साधक हैं; उन व्रतोंको यहाँ नहीं छुड़ाया है, किन्तु यह कहा है कि उन व्रतोंका भी ममत्व छोड़कर परमार्थ मोक्षमार्गमें लगनेसे मोक्ष होता है, केवल वेशमात्रसे-व्रतमात्रसे मोक्ष नहीं होता।
अब इस अर्थको दृढ़ करनेवाली आगामी गाथाका सूचक श्लोक कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [आत्मनः तत्त्वम् दर्शन-ज्ञान-चारित्र-त्रय-आत्मा ] आत्माका तत्त्व दर्शनज्ञानचारित्रत्रयात्मक है ( अर्थात् आत्माका यथार्थ रूप दर्शन, ज्ञान और चारित्रके त्रिकस्वरूप है); [ मुमुक्षुणा मोक्षमार्ग: एकः एव सदा सेव्यः ] इसलिये मोक्षके इच्छुक पुरुषको ( यह दर्शनज्ञानचारित्रस्वरूप) मोक्षमार्ग एक ही सदा सेवन करने योग्य है। २३९ । अब इसी उपदेश को गाथा द्वारा कहते हैं:
तूं स्थाप निजको मोक्षपथमें, ध्या, अनुभव तू उसे । उसमें ही नित्य विहार कर, न विहार कर परद्रव्यमें ।। ४१२ ।।
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