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समयसार
मोक्षपथे आत्मानं स्थापय तं चैव ध्यायस्व तं चेतयस्व । तत्रैव विहर नित्यं मा विहार्षीरन्यद्रव्येषु ।। ४१२ ।।
आसंसारात्परद्रव्ये रागद्वेषादौ नित्यमेव
स्वप्रज्ञादोषेणावतिष्ठमानमपि,
तथा
सकलकर्मकर्मफलचेतनासंन्यासेन
स्वप्रज्ञागुणेनैव ततो व्यावर्त्य दर्शनज्ञानचारित्रेषु नित्यमेवावस्थापयातिनिश्चलमात्मानं; तथा समस्तचिन्तान्तरनिरोधेनात्यन्तमेकाग्रो भूत्वा दर्शनज्ञानचारित्राण्येव ध्यायस्व; शुद्धज्ञानचेतनामयो भूत्वादर्शनज्ञानचारित्राण्येव चेतयस्व; तथा द्रव्यस्वभाववशतः प्रतिक्षणविजृम्भमाण परिणामतया तन्मयपरिणामो भूत्वा दर्शनज्ञानचारित्रेष्वेव विहर; ज्ञानरूपमेकमेवाचलितमवलम्बमानो ज्ञेयरूपेणोपाधितया सर्वत एव प्रधावत्स्वपि परद्रव्येषु सर्वेष्वपि मनागपि मा विहार्षीः।
तथा
गाथार्थ:- (हे भव्य ! ) [ मोक्षपथे ] तू मोक्षमार्गमें [आत्मानं स्थापय ] अपने आत्माको स्थापित कर, [ तं च एव ध्यायस्व ] उसी का ध्यान कर, [ तं चेतयस्व ] उसी को चेत- अनुभव कर [ तत्र एव नित्यं विहर ] और उसी में निरंतर विहार कर; [ अन्यद्रव्येषु मा विहार्षीः ] अन्य द्रव्योंमें विहार मत कर।
टीका :- (हे भव्य ! ) स्वयं अर्थात् अपना आत्मा अनादि संसारसे लेकर अपनी प्रज्ञाके (-बुद्धिके) दोषसे परद्रव्यमें - रागद्वेषादिमें निरंतर स्थित रहता हुआ भी अपनी प्रज्ञाके गुण द्वारा ही उसमें से पीछे हटाकर उसे अति निश्चलता पूर्वक दर्शन-ज्ञानचारित्रमें निरंतर स्थापित कर; तथा समस्त अन्य चिंताके निरोध द्वारा अत्यंत एकाग्र होकर दर्शन - ज्ञान - चारित्रका ही ध्यान कर; तथा समस्त कर्मचेतना और कर्मफलचेतनाके त्याग द्वारा शुद्धज्ञानचेतनामय होकर दर्शन - ज्ञान - चारित्रको ही चेतअनुभव कर; तथा द्रव्यके स्वभावके वशसे ( अपनेको) प्रतिक्षण जो परिणाम उत्पन्न होते हैं- उनके द्वारा ( अर्थात् परिणामीपनेके द्वारा ) तन्मय परिणामवाला (दर्शनज्ञानचारित्रमय परिणामवाला) होकर दर्शन - ज्ञान - चारित्रमें ही विहार कर; तथा ज्ञानरूपको एकको ही अचलतया अवलंबन करता हुआ, जो ज्ञेयरूप होनेसे उपाधिस्वरूप है ऐसे सर्व ओरसे फैलते हुए समस्त परद्रव्योंमें किंचित्मात्र भी विहार
मत कर ।
भावार्थ:-परमार्थरूप आत्माके परिणाम दर्शन - ज्ञान - चारित्र है; वही मोक्षमार्ग है। उसी में ( - दर्शनज्ञानचारित्रमें ही ) आत्माको स्थापित करना चाहिये, उसीका ध्यान करना चाहिये, उसीका अनुभव करना चाहिये और उसी में विहार ( - प्रवर्तन ) करना चाहिये, अन्य द्रव्योंमें प्रवर्तन नहीं करना चाहिये । यहाँ परमार्थ से यही उपदेश है कि-निश्चय मोक्षमार्गका सेवन करना चाहिये, मात्र व्यवहारमें ही मूढ़ नहीं रहना चाहिये।
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