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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates निर्जरा अधिकार
मम परिग्रहो यदि ततोऽहमजीवतां तु गच्छेयम् । ज्ञातैवाहं यस्मात्तस्मान्न परिग्रहो मम ।। २०८ ।।
यदि परद्रव्यमजीवमहं परिगृह्णीयां तदावश्यमेवाजीवो ममासौ स्वः स्यात्, अहमप्यवश्यमेवाजीवस्यामुष्य स्वामी स्याम् । अजीवस्य तु यः स्वामी, स किलाजीव एव। एवमवशेनापि ममाजीवत्वमापद्येत । मम तु एको ज्ञायक एव भावः यः स्वः, अस्यैवाहं स्वामी; ततो मा भून्ममाजीवत्वं ज्ञातैवाहं भविष्यामि, न परद्रव्यं परिगृह्णामि ।
अयं च मे निश्चय:
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छिज्जदु वा भिज्जदु वा णिज्जदु वा अहव जादु विप्पलयं । जम्हा तम्हा गच्छदु तह वि हु ण परिग्गहो मज्झ ।। २०९ ।।
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गाथार्थ:- [ यदि ] यदि [ परिग्रहः ] परद्रव्य - परिग्रह [ मम ] मेरा हो [ ततः ] तो [ अहम् ] मैं [ अजीवतां तु ] अजीवत्व को [ गच्छेयम् ] प्राप्त हो जाऊँ। [ यस्मात् ] क्योंकि [ अहं ] मैं तो [ ज्ञाता एव ] ज्ञाता ही हूँ [ तस्मात् ] इसलिये [ परिग्रहः ] (परद्रव्यरूप ) परिग्रह [ मम न ] मेरा नहीं है।
टीका:-यदि मैं अजीव परद्रव्यका परिग्रह करूँ तो अवश्यमेव वह अजीव मेरा 'स्व' हो, और मैं भी अवश्य ही उस अजीवका स्वामी होऊँ; और जो अजीवका स्वामी होगा वह वास्तवमें अजीव ही होगा। इसप्रकार अवशतः (लाचारीसे) मुझमें अजीवत्व आ पड़े। मेरा तो एक ज्ञायक भाव ही जो 'स्व' है, उसीका मैं स्वामी हूँ, इसलिये मुझको अजीवत्व न हो, मैं तो ज्ञाता ही रहूँगा, मैं परद्रव्यका परिग्रह नहीं करूँगा।
भावार्थ:-निश्चयनयसे यह सिद्धांत है कि जीवका भाव जीव ही है, उसके साथ जीवका स्व-स्वामी संबंध है, और अजीवका भाव अजीव ही है, उसके साथ अजीवका स्व-स्वामी संबंध है। यदि जीवके अजीवका परिग्रह माना जाये तो जीव अजीवत्व को प्राप्त हो जाये; इसलिये जीवके अजीवका परिग्रह मानना मिथ्याबुद्धि है । ज्ञानीके ऐसी मिथ्याबुद्धि नहीं होती । ज्ञानी तो यह मानता है कि परद्रव्य मेरा परिग्रह नहीं है, मैं तो ज्ञाता हूँ ।
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' और मेरा तो यह ( निम्नोक्त ) निश्चय है' यह अब कहते हैं:
छेदाय या भेदाय, को ले जाय, नष्ट बनो भले ।
या अन्य को रीत जाय, पर परिग्रह न मेरा है अरे ।। २०९।।
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