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समयसार
३२६
छिद्यतां वा भिद्यतां वा नीयतां वाथवा यातु विप्रलयम्। यस्मात्तस्मात् गच्छतु तथापि खलु न परिग्रहो मम।। २०९ ।।
छिद्यतां वा, भिद्यतां वा, नीयतां वा, विप्रलयं यातु वा, यतस्ततो गच्छतु वा, तथापि न परद्रव्यं परिगृह्णामि; यतो न परद्रव्यं मम स्वं, नाहं परद्रव्यस्य स्वामी, परद्रव्यमेव परद्रव्यस्य स्वं, परद्रव्यमेव परद्रव्यस्य स्वामी, अहमेव मम स्वं, अहमेव मम स्वामी इति जानामि।
(वसन्ततिलका) इत्थं परिग्रहमपास्य समस्तमेव सामान्यतः स्वपरयोरविवेकहेतुम्। अज्ञानमुज्झितुमना अधुना विशेषाद् भूयस्तमेव परिहर्तुमयं प्रवृत्तः।। १४५ ।।
गाथार्थ:- [ छिद्यतां वा] छिद जाये, [भिद्यतां वा] अथवा भिद जाये, [ नीयतां वा ] अथवा कोई ले जाये, [अथवा विप्रलयम् यातु] अथवा नष्ट हो जाये, [ यस्मात् तस्मात् गच्छतु] अथवा चाहे जिस प्रकारसे चला जाये, [ तथापि] फिर भी [ खलु ] वास्तवमें [परिग्रहः ] परिग्रह [ मम न ] मेरा नहीं है।
टीका:-परद्रव्य छिदे, अथवा भिदे, अथवा कोई उसे ले जाये, अथवा वह नष्ट हो जाये, या जिस प्रकार से जाये, तथापि मैं परद्रव्यको परिग्रहण नहीं करूँगा; क्योंकि 'परद्रव्य मेरा स्व नहीं है, -मैं परद्रव्यका स्वामी नहीं हूँ, परद्रव्य ही परद्रव्यका स्व है, -परद्रव्य ही परद्रव्यका स्वामी है, मैं ही अपना स्व हूँ, -मैं ही अपना स्वामी हूँ'-ऐसा मैं जानता हूँ।
भावार्थ:-ज्ञानीको परद्रव्यके बिगड़ने-सुधरनेका हर्षविषाद नहीं होता।
अब इस अर्थका कलशरूप और आगामी कथनका सूचनारूप काव्य कहते
*श्लोकार्थ:- [इत्थं] इसप्रकार [समस्तम् एव परिग्रहम् ] समस्त परिग्रहको [सामान्यतः] सामान्यतः [अपास्य ] छोड़कर [अधुना] अब [स्वपरयोः अविवेकहेतुम् अज्ञानम् उज्झितुमनाः अयं ] स्व-परके अविवेकके कारणरूप अज्ञानको छोड़नेका जिनका मन है ऐसा यह[ भूयः ] पुनः [ तम् एव ] उसीको ( –परिग्रहको ही)
* इस कलशका अर्थ इसप्रकार भी होता है:-[इत्थं] इसप्रकार [स्वपरयोः अविवेकहेतुम् समस्तम् एव परिग्रहम् ] स्व-परके अविवेकके कारणरूप समस्त परिग्रहको [ सामान्यतः ] सामान्यतः [अपास्य ] छोड़कर [अधुना] अब, [अज्ञानम् उज्झितुमनाः अयं] अज्ञानको छोड़नेका जिसका मन है ऐसा यह, [भूयः ] फिर भी [तम् एव] उसे ही [ विशेषात् ] विशेषतः [ परिहर्तुम् ] छोड़ने के लिये [ प्रवृत्तः] प्रवृत्त हुआ है।
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