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निर्जरा अधिकार
३२७
अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णेच्छदे धम्म। अपरिग्गहो दुधम्मस्स जाणगो तेण सो होदि।। २१० ।।
अपरिग्रहोऽनिच्छो भणितो ज्ञानी च नेच्छति धर्मम। अपरिग्रहस्तु धर्मस्य ज्ञायकस्तेन स भवति।। २१० ।।
इच्छा परिग्रहः। तस्य परिग्रहो नास्ति यस्येच्छा नास्ति। इच्छा त्वज्ञानमयो भावः, अज्ञानमयो भावस्तु ज्ञानिनो नास्ति, ज्ञानिनो ज्ञानमय एव भावोऽस्ति। ततो ज्ञानी अज्ञानमयस्य भावस्य इच्छाया अभावाद्धर्म नेच्छति। तेन ज्ञानिनो धर्मपरिग्रहो नास्ति। ज्ञानमयस्यैकस्य ज्ञायकभावस्य भावाद्धर्मस्य केवलं ज्ञायक एवायं स्यात्।
[विशेषात् ] विशेषतः [ परिहर्तुम् ] छोड़नेको [ प्रवृत्तः ] प्रवृत्त हुआ है।
भावार्थ:-स्वपरको एकरूप जाननेका कारण अज्ञान है। उस अज्ञानको सम्पूर्णतया छोड़नेके इच्छुक जीवने पहले तो परिग्रहका सामान्यतः त्याग किया और अब ( अगामी गाथाओंमें) उस परिग्रहको विशेषतः ( भिन्न भिन्न नाम लेकर) छोड़ता है। १४५।
पहले यह कहते हैं कि ज्ञानीके धर्मका ( पुण्यका) परिग्रह नहीं है:
अनिच्छक कहा अपरिग्रही, नहिं पुण्य इच्छा ज्ञानी के । इससे न परिग्रही पुण्यका वो, पुण्यका ज्ञायक रहे ।। २१०।।
गाथार्थ:- [ अनिच्छ: ] अनिच्छकको [ अपरिग्रहः ] अपरिग्रही [ भणितः ] कहा है [च ] और [ ज्ञानी ] ज्ञानी [धर्मम् ] धर्मको ( पुण्यको ) [ न इच्छति ] नहीं चाहता, [ तेन ] इसलिये [ सः] वह [धर्मस्य ] धर्मका [अपरिग्रह: तु] परिग्रही नहीं है, (किन्तु) [ ज्ञायक:] (धर्मका) ज्ञायक ही [ भवति ] है।
टीका:-इच्छा परिग्रह है। उसको परिग्रह नहीं है-जिसको इच्छा नहीं है। इच्छा तो अज्ञानमय भाव है और अज्ञानमय भाव ज्ञानीके नहीं होता, ज्ञानीके ज्ञानमय ही भाव होता है; इसलिये अज्ञानमय भाव-इच्छाके अभाव होने से ज्ञानी धर्मको नहीं चाहता है; इसलिये ज्ञानीके धर्मका परिग्रह नहीं है। ज्ञानमय एक ज्ञायकभावके सद्भावके कारण यह (ज्ञानी) धर्मका केवल ज्ञायक ही है।
अब, यह कहते हैं कि ज्ञानीके अधर्मका ( पापका) परिग्रह नहीं है:
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