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समयसार
३२८
अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णेच्छदि अधम्म। अपरिग्गहो अधम्मस्स जाणगो तेण सो होदि।। २११ ।।
अपरिग्रहोऽनिच्छो भणितो ज्ञानी च नेच्छत्यधर्मम। अपरिग्रहोऽधर्मस्य ज्ञायकस्तेन स भवति।। २११ ।।
इच्छा परिग्रहः। तस्य परिग्रहो नास्ति यस्येच्छा नास्ति। इच्छा त्वज्ञानमयो भावः, अज्ञानमयो भावस्तु ज्ञानिनो नास्ति, ज्ञानिनो ज्ञानमय एव भावोऽस्ति। ततो ज्ञानी अज्ञानमयस्य भावस्य इच्छाया अभावादधर्म नेच्छति। तेन ज्ञानिनोऽधर्मपरिग्रहो नास्ति। ज्ञानमयस्यैकस्य ज्ञायकभावस्य भावादधर्मस्य केवलं ज्ञायक एवायं स्यात्।
एवमेव चाधर्मपदपरिवर्तनेन रागद्वेषक्रोधमानमायालोभकर्मनोकर्ममनोवचनकायश्रोत्रचक्षुर्घाणरसनस्पर्शनसूत्राणि षोडश व्याख्येयानि। अनया दिशाऽन्यान्यप्यूह्यानि।
अनिच्छक कहा अपरिग्रही, नहीं पाप इच्छा ज्ञानीके । इससे न परिग्रही पापका वो, पापका ज्ञायक रहे ।। २११ ।।
गाथार्थ:- [ अनिच्छ: ] अनिच्छकको [अपरिग्रहः ] अपरिग्रही [ भणितः ] कहा है [च ] और [ ज्ञानी] ज्ञानी [अधर्मम् ] अधर्मको (पापको) [न इच्छति] नहीं चाहता, [ तेन] इसलिये [ सः] वह [अधर्मस्य] अधर्मका [ अपरिग्रहः ] परिग्रही नहीं है, [ ज्ञायक: ] ( अधर्मका) ज्ञायक ही [भवति ] है।
टीका:-इच्छा परिग्रह है। उसको परिग्रह नहीं है-जिसको इच्छा नहीं है। इच्छा तो अज्ञानमय भाव है और अज्ञानमय भाव ज्ञानीके नहीं होता, ज्ञानीके ज्ञानमय ही भाव होता है; इसलिये अज्ञानमय भाव-इच्छाके अभाव होने से ज्ञानी अधर्मको नहीं चाहता; इसलिये ज्ञानीके अधर्मका परिग्रह नहीं है। ज्ञानमय एक ज्ञायकभावके सद्भावके कारण यह (ज्ञानी) अधर्मका केवल ज्ञायक ही है।
इसप्रकार गाथामें 'अधर्म' शब्द बदलकर उसके स्थान पर राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, ध्राण, रसन और स्पर्शन-यह सोलह शब्द रखकर, सोलह गाथासूत्र व्याख्यानरूप करना और इस उपदेशसे दूसरे भी विचार करना चाहिये।
अब, यह कहते हैं कि ज्ञानीके आहारका भी परिग्रह नहीं है:
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