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निर्जरा अधिकार
३२९
अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णेच्छदे असणं। अपरिग्गहो दु असणस्स जाणगो तेण सो होदि।। २१२ ।।
अपरिग्रहोऽनिच्छो भणितो ज्ञानी च नेच्छत्यशनम। अपरिग्रहस्त्वशनस्य ज्ञायकस्तेन स भवति।। २१२ ।।
इच्छा परिग्रहः। तस्य परिग्रहो नास्ति यस्येच्छा नास्ति। इच्छा त्वज्ञानमयो भावः, अज्ञानमयो भावस्तु ज्ञानिनो नास्ति, ज्ञानिनो ज्ञानमय एव भावोऽस्ति। ततो ज्ञानी अज्ञानमयस्य भावस्य इच्छाया अभावादशनं नेच्छति। तेन ज्ञानिनोऽशन परिग्रहो नास्ति। ज्ञानमयस्यैकस्य ज्ञायकभावस्य भावादशनस्य केवलं ज्ञायक एवायं स्यात्।
अनिच्छक कहा अपरिग्रही नहिं, नहीं अशन इच्छा ज्ञानीके । इससे न परिग्रही अशनका वो, अशनका ज्ञायक रहे ।। २१२।।
गाथार्थ:- [ अनिच्छः ] अनिच्छकको [ अपरिग्रहः ] अपरिग्रही [ भणितः ] कहा है [ च ] और [ ज्ञानी ] ज्ञानी [ अशनम् ] भोजनको [ न इच्छति ] नहीं चाहता, [ तेन] इसलिये [ सः ] वह [अशनस्य ] भोजनका [ अपरिग्रहः तु] परिग्रही नहीं है, (किन्तु) [ ज्ञायक: ] ( भोजनका ) ज्ञायक ही [ भवति ] है।
टीका:-इच्छा परिग्रह है। उसको परिग्रह नहीं है-जिसको इच्छा नहीं है। इच्छा तो अज्ञानमय भाव है और अज्ञानमय भाव ज्ञानीके नहीं होता, ज्ञानीके ज्ञानमय ही भाव होता है; इसलिये अज्ञानमय भाव-इच्छाके अभावके कारण ज्ञानी भोजनको नहीं चाहता; इसलिये ज्ञानीके भोजनका परिग्रह नहीं है। ज्ञानमय एक ज्ञायकभावके सद्भावके कारण यह (ज्ञानी) भोजनका केवल ज्ञायक ही है।
भावार्थ:-ज्ञानीके आहारकी भी इच्छा नहीं होती इसलिये ज्ञानीका आहार करना वह भी परिग्रह नहीं है। यहाँ प्रश्न होता है कि-आहार तो मुनि भी करते हैं, उनके इच्छा है या नहीं? इच्छाके बिना आहार कैसे किया जा सकता है ? समाधान:अशातावेदनीय कर्मके उदयसे जठराग्निरूप क्षुधा उत्पन्न होती है, वीर्यांतरायके उदयसे उसकी वेदना सहन नहीं की जा सकती और चारित्रमोहके उदयसे आहारग्रहणकी इच्छा उत्पन्न होती है। इस इच्छाको ज्ञानी कर्मोदयका कार्य जानते हैं, और उसे रोग समान जानकर मिटाना चाहते हैं। ज्ञानी के इच्छाके प्रति अनुरागरूप इच्छा नहीं होती अर्थात् उसके ऐसी इच्छा नहीं होती कि मेरी यह इच्छा सदा रहे। इसलिये उसके अज्ञानमय इच्छाका अभाव है। परजन्य इच्छाका स्वामित्व ज्ञानीके नहीं होता इसलिये ज्ञानी इच्छाका भी ज्ञायक ही है। इसप्रकार शुद्धनयकी प्रधानतासे कथन जानना चाहिये।
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