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समयसार
५८२
__ स्याद्वादो हि समस्तवस्तुतत्त्वसाधकमेकमस्खलितं शासनमर्हत्सर्वज्ञस्य। स तु सर्वमनेकान्तात्मकमित्यनुशास्ति, सर्वस्यापि वस्तुनोऽनेकान्तस्वभावत्वात्। अत्र त्वात्मवस्तुनि ज्ञानमात्रतया अनुशास्यमानेऽपि न तत्परिकोपः, ज्ञानमात्रस्यात्मवस्तुनः स्वयमेवानेकान्तत्वात्। तत्र यदेव तत्तदेवातत्, यदेवैकं तदेवानेकं, यदेव सत्तदेवासत्,
यदेव
नित्यं तदेवानित्यमित्येकवस्तुवस्तुत्वनिष्पादकपरस्परविरुद्धशक्तिद्वयप्रकाश-नमनेकान्तः। तत्स्वात्मवस्तुनो ज्ञानमात्रत्वेऽप्यन्तश्चकचकायमानज्ञानस्वरूपेण तत्त्वात्, बहिरुन्मिषदनन्तज्ञेयतापन्नस्वरूपातिरिक्तपररूपेणातत्त्वात्, सहक्रमप्रवृत्तानन्तचिदंशसमुदयरूपाविभागद्रव्येणैकत्वात्
अविभागैकद्रव्यव्याप्तसहक्रम प्रवृत्तानन्तचिदंशरूपपर्यायै-रनेकत्वात्, स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावभवनशक्तिस्वभाववत्त्वेन सत्त्वात्, परद्रव्यक्षेत्रकाल- भावाभवनशक्तिस्वभाववत्त्वेनाऽसत्त्वात्,
स्याद्वाद समस्त वस्तुओंके स्वरूपको सिद्ध करनेवाला, अर्हत् सर्वज्ञका एक अस्खलित ( –निर्बाध ) शासन है। वह ( स्याद्वाद) 'सब अनेकान्तात्मक है' इसप्रकार उपदेश करता है, क्योंकि समस्त वस्तु अनेकांत-स्वभाववाली है। ('सर्व वस्तुएँ अनेकांतस्वरूप है' इसप्रकार जो स्याद्वाद कहता है सो वह असत्यार्थ कल्पनासे नहीं कहता, परंतु जैसा वस्तुका अनेकांत स्वभाव है वैसा ही कहता है।)
यहाँ आत्मा नामक वस्तुको ज्ञानमात्रतासे उपदेश करनेपर भी स्याद्वादका कोप नहीं है, क्योंकि ज्ञानमात्र आत्मवस्तुके स्वयमेव अनेकांतात्मकत्व है। वहाँ (अनेकांतका ऐसा स्वरूप है कि), जो (वस्तु) तत् है वही अतत् है, जो (वस्तु) एक है वही अनेक है, जो सत् है वही असत् है, जो नित्य है वही अनित्य हैइसप्रकार ‘एक वस्तुमें वस्तुत्वकी उपजानेवाली परस्पर विरुद्ध दो शक्तिओंका प्रकाशित होना अनेकांत है।' इसलिये अपनी आत्मवस्तुको भी, ज्ञानमात्रता होने पर भी, तत्-अतत्, एकत्व-अनेकत्व, सत्व-असत्व और नित्यत्व और अनित्यत्वपना प्रकाशता ही है; क्योंकि-उसके (ज्ञानमात्र आत्मवस्तुके) अंतरंगमें चकचकित प्रकाशते ज्ञानस्वरूप के द्वारा तत्पना है, और बाहर प्रगट होते, अनंत, ज्ञेयत्वको प्राप्त, स्वरूपसे भिन्न ऐसे पररूपके द्वारा ( -ज्ञानस्वरूपसे भिन्न ऐसे परद्रव्यके रूप द्वारा-) अतत्पना है (अर्थात् ज्ञान उस रूप नहीं है); सहभूत (-साथ ही) प्रवर्तमान और क्रमशः प्रवर्तमान अनंत चैतन्य-अंशोंके समुदायरूप अविभाग द्रव्यके द्वारा एकत्व है, और अविभाग एक द्रव्यमें व्याप्त, सहभूत प्रवर्तमान तथा क्रमशः प्रवर्तमान अनंत चैतन्य-अंशरूप ( –चैतन्यके अनंत अंशोंरूप) पर्यायोंके द्वारा अनेकत्व है; अपने द्रव्यक्षेत्र-काल-भावरूपसे होनेकी शक्तिरूप जो स्वभाव है उस स्वभाववानपने के द्वारा ( अर्थात् ऐसे स्वभाववाली होनेसे ) सत्त्व है, और परके द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूप न होने की शक्तिरूप जो स्वभाव है उस स्वभाववानपने के द्वारा असत्व है;
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