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समयसार
४५८
नापि करोति नापि वेदयते ज्ञानी कर्माणि बहुप्रकाराणि।
जानाति पुनः कर्मफलं बन्धं पुण्यं च पापं च ।। ३१९ ।। ज्ञानी हि कर्मचेतनाशून्यत्वेन कर्मफलचेतनाशून्यत्वेन च स्वयमकर्तृत्वादवेदयितृत्वाच्च न कर्म करोति न वेदयते च; किन्तु ज्ञानचेतनामयत्वेन केवलं ज्ञातृत्वात्कर्मबन्धं कर्मफलं च शुभमशुभं वा केवलमेव जानाति।
कुत एतत् ?दिट्ठी जहेव णाणं अकारयं तह अवेदयं चेव। जाणइ य बंधमोक्खं कम्मुदयं पिज्जरं चेव।। ३२० ।। __दृष्टि: यथैव ज्ञानमकारकं तथाऽवेदकं चैव। जानाति च बन्धमोक्षं कर्मोदयं निर्जरां चैव।। ३२० ।।
गाथार्थ:- [ज्ञानी ] ज्ञानी [ बहुप्रकाराणि ] बहुत प्रकारके [ कर्माणि ] कर्मों को [न अपि करोति ] न तो करता है, [ न अपि वेदयति ] और न भोगता ही है; [ पुनः] किन्तु [ पुण्यं च पापं च ] पुण्य और पापरूप [बन्धं ] कर्मबंधको [कर्मफलं] तथा कर्मफलको [जानाति ] जानता है।
टीका:-ज्ञानी कर्मचेतना रहित होनेसे स्वयं अकर्ता है, और कर्मफलचेतना रहित होनेके कारण स्वयं अभोक्ता है, इसलिये वह कर्मको न तो करता है और न भोगता है; किन्तु ज्ञानचेतनामय होने से मात्र ज्ञाता ही है, इसलिये वह शुभ अथवा अशुभ कर्मबंधको तथा कर्मफलको मात्र जानता ही है।
अब प्रश्न होता है कि- (ज्ञानी कर्ता-भोक्ता नहीं है, मात्र ज्ञाता ही है) यह कैसे है ? इसका उत्तर दृष्टांतपूर्वक कहते हैं:
ज्यों नेत्र, त्यों ही ज्ञान नहिं कारक , नहीं वेदक अहो। जाने हि कर्मोदय, निरजरा, बंध त्यों ही मोक्षको ।। ३२० ।।
गाथार्थ:- [ यथा एव दृष्टि:] जैसे नेत्र ( दृश्य पदार्थों को करता-भोगता नहीं है, किन्तु देखता ही है), [ तथा] उसीप्रकार [ ज्ञानम् ] ज्ञान [अकारकं ] अकारक [अवेदकं च एव ] तथा अवेदक है, [च ] और [बन्धमोक्षं ] बंध, मोक्ष , [कर्मोदयं] कर्मोदय [ निर्जरां च एव ] तथा निर्जराको [ जानाति ] जानता ही है।
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