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[परिशिष्टम् ]
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(शार्दूलविक्रीडित) विश्वं ज्ञानमिति प्रतय॑ सकलं दृष्ट्वा स्वतत्त्वाशया भूत्वा विश्वमयः पशुः पशुरिव स्वच्छन्दमाचेष्टते। यत्तत्तत्पररूपतो न तदिति स्याद्वाददर्शी पुनविश्वाद्भिन्नमविश्वविश्वघटितं तस्य स्वतत्त्वं स्पृशेत्।। २४९ ।।
गया, [ उज्झित-निज-प्रव्यक्ति-रिक्तीभवत् ] अपनी व्यक्ति (प्रगटता) को छोड़ देनेसे रिक्त ( -शून्य) हुआ, [ परितः पररूपे एव विश्रान्तं] सम्पूर्णतया पररूपमें ही विश्रांत ( अर्थात् पररूपके ऊपर ही आधार रखता हुआ) ऐसे [ पशोः ज्ञानं] पशुका ज्ञान ( - पशुवत् एकांतवादीका ज्ञान) [ सीदति] नाशको प्राप्त होता है ; [ स्याद्वादिनः तत् पुनः] और स्याद्वादीका ज्ञान तो, [ 'यत् तत् तत् इह स्वरूपतः तत्' इति ] 'जो तत है वह स्वरूपसे तत है (अर्थात प्रत्येक तत्त्वको-वस्तको स्वरूपसे तत्पना है)' ऐसी मान्यताके कारण, [दूर-उन्मग्न-घन-स्वभाव-भरत:] अत्यंत प्रगट हुए ज्ञानघनरूप स्वभावके भारसे , [ पूर्ण समुन्मज्जति ] संपूर्ण उदित ( प्रगट) होता है।
भावार्थ:-कोई सर्वथा एकांतवादी तो यह मानता है कि-घटज्ञान घटके आधारसे ही होता है इसलिये ज्ञान सर्व प्रकारसे ज्ञेयों पर ही आधार रखता है। ऐसा माननेवाले एकांतवादीके ज्ञानको तो ज्ञेय पी गये हैं, ज्ञान स्वयं कुछ नहीं रहा। स्याद्वादी तो ऐसा मानते हैं कि-ज्ञान अपने स्वरूपसे तत्स्वरूप (-ज्ञानस्वरूप) ही है, ज्ञेयाकार होनेपर भी ज्ञानत्वको नहीं छोड़ता। ऐसी यथार्थ अनेकांत समझके कारण स्याद्वादीको ज्ञान (अर्थात् ज्ञानस्वरूप आत्मा) प्रगट प्रकाशित होता है।
इसप्रकार स्वरूपसे तत्पनेका भंग कहा है। २४८ । ( अब दूसरे भंगका कलशरूप काव्य कहते हैं:-)
श्लोकार्थ:- [ पशुः ] पशु अर्थात् सर्वथा एकांतवादी अज्ञानी , [ 'विश्वं ज्ञानम्' इति प्रतय॑] 'विश्व ज्ञान है ( अर्थात् सर्व ज्ञेयपदार्थ आत्मा हैं)' ऐसा विचार करके [ सकलं स्वतत्त्व-आशया दृष्ट्वा ] सबको (-समस्त विश्वको) निजतत्त्वकी आशासे देखकर [विश्वमयः भूत्वा] विश्वमय (-समस्त ज्ञेयपदार्थमय) होकर, [पशु: इव स्वच्छन्दम् आचेष्टते] पशुकी भाँति स्वच्छंदतया चेष्टा करता है-प्रवृत्त होता है; [ पुनः] और [ स्याद्वाददर्शी] स्याद्वादका देखनेवाला तो यह मानता है कि, [* यत् तत् तत् पररूपतः न तत्' इति ] 'जो तत् है वह पररूपसे तत् नहीं है ( अर्थात् प्रत्येक तत्त्वको स्वरूपसे तत्पना होनेपर भी पररूपसे अतत्पना है)' इसलिये, [ विश्वात् भिन्नम् अविश्व-विश्वघटितं] विश्वसे भिन्न ऐसे तथा विश्वसे (-विश्वके निमित्त से) रचित होने पर भी विश्वरूप न होने वाले ऐसे (अर्थात् समस्त ज्ञेय वस्तुओंके आकाररूप होनेपर भी समस्त ज्ञेयवस्तुसे भिन्न ऐसा)
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