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समयसार
४०४
आचारादिशब्दश्रुतसद्भावेऽसद्भावे वा तत्सद्भावेनैव ज्ञानस्य सद्भावात; शुद्ध आत्मैव दर्शनस्याश्रयः, जीवादिपदार्थसद्भावेऽसद्भावे वा तत्सद्भावेनैव दर्शनस्य सद्भावात; शुद्ध आत्मैव चारित्रस्याश्रयः, षड्जीवनिकायसद्भावेऽसद्भावे वा तत्सद्भावेनैव चारित्रस्य सद्भावात्।
__ (उपजाति) रागादयो बन्धनिदानमुक्तास्ते शुद्धचिन्मात्रमहोऽतिरिक्ताः। आत्मा परो वा किमु तन्निमित्तमिति प्रणुन्नाः पुनरेवमाहुः।। १७४ ।।
व्यभिचार नहीं है क्योंकि जहाँ शुद्ध आत्मा होता है वहाँ ज्ञान-दर्शन-चारित्र होता ही है।) यही बात हेतु पूर्वक समझाई जाती है :आचारांगादि शब्दश्रुत एकांतसे ज्ञानका आश्रय नहीं है, क्योंकि उसके (अर्थात् शब्दश्रुतके ) सद्भावमें भी अभव्योंको शुद्ध आत्माके अभावके कारण ज्ञानका अभाव है; जीवादि नव पदार्थ दर्शनके आश्रय नहीं हैं, क्योंकि उनके सद्भावमें भी अभव्योंको शुद्ध आत्माके अभावके कारण दर्शनका अभाव है; छह जीव निकाय चारित्रके आश्रय नहीं है, क्योंकि उनके सद्भावमें भी अभव्योंको शुद्ध आत्माके अभावके कारण चारित्रका अभाव है। शुद्ध आत्मा ही ज्ञानका आश्रय है, क्योंकि आचारांगादि शब्दश्रुतके सद्भावमें या असद्भावमें उसके ( -शुद्ध आत्माके) सद्भावसे ही ज्ञानका सद्भाव है; शुद्ध आत्मा ही दर्शनका आश्रय है, क्योंकि जीवादि नव पदार्थों के सद्भावमें या असद्भावमें उसके ( -शुद्ध आत्माके) सद्भावसे ही दर्शनका सद्भाव है; शुद्ध आत्मा ही चारित्रका आश्रय है, क्योंकि छह जीव-निकायके सद्भावमें या असद्भावमें उसके ( -शुद्ध आत्माके) सद्भावसे ही चारित्रका सद्भाव होता है।
भावार्थ:-आचारांगादि शब्दश्रुतका ज्ञान, जीवादि नव पदार्थोंका श्रद्धान तथा छहकायके जीवोंकी रक्षा-इन सबके होते हुए अभव्यके ज्ञान, दर्शन, चारित्र नहीं होते, इसलिये व्यवहारनय तो निषेध्य है; और जहाँ शुद्धात्मा होता है वहाँ ज्ञान, दर्शन, चारित्र होता ही है, इसलिये निश्चयनय व्यवहारका निषेधक है। अतः शुद्धनय उपादेय कहा गया है।
अब आगामी कथनका सूचक काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ:- [ रागादयः बन्धनिदानम् उक्ताः ] " रागादिको बंधका कारण कहा और [ ते शुद्ध-चिन्मात्र-मह:-अतिरिक्ताः] उन्हें शुद्धचैतन्यमात्र ज्योतिसे (अर्थात् आत्मासे) भिन्न कहा; [ तद्-निमित्तम् ] तब फिर उस रागादिका निमित्त [ किमु आत्मा वा परः ] आत्मा है या कोई अन्य ?" [ इति प्रणुन्नाः पुनः एवम् आहुः ] इसप्रकार (शिष्यके ) प्रश्नसे प्रेरित होते हुए आचार्यभगवान पुनः इसप्रकार (निम्नप्रकारसे) कहते हैं। १७४।
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