SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 437
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates बंध अधिकार ४०३ आचारादि ज्ञानं जीवादि दर्शनं च विज्ञेयम्। षड्जीवनिकायं च तथा भणति चरित्रं तु व्यवहारः।। २७६ ।। आत्मा खलु मम ज्ञानमात्मा मे दर्शनं चरित्रं च। आत्मा प्रत्याख्यानमात्मा मे संवरो योगः।। २७७ ।। आचारादिशब्दश्रुतं ज्ञानस्याश्रयत्वाज्ज्ञानं, जीवादयो नवपदार्था दर्शनस्याश्रय त्वाद्दर्शनं, षड्जीवनिकायश्चारित्रस्याश्रयत्वाचारित्रमिति व्यवहारः। शुद्ध आत्मा ज्ञानाश्रयत्वाज्ज्ञानं, शुद्ध आत्मा दर्शनाश्रयत्वाद्दर्शनं, शुद्ध आत्मा चारित्राश्रयत्वाचारित्रमिति निश्चयः। तत्राचारादीनां ज्ञानाद्याश्रयत्वस्यानैकान्तिकत्वाव्यवहारनयः प्रतिषेध्यः। निश्चयनयस्तु शुद्धस्यात्मनो ज्ञानाद्याश्रयत्वस्यैकान्तिकत्वात्तत्प्रतिषेधकः। तथाहि- नाचारादिशब्दश्रुतमेकान्तेन ज्ञानस्याश्रयः, तत्सद्भावेऽप्यभव्यानां शुद्धात्माभावेन ज्ञानस्याभावात्; न च जीवादयः पदार्था दर्शनस्याश्रयः, तत्सद्भावेऽप्यभव्यानां शुद्धात्माभावेन दर्शनस्याभावात; न च षड्जीवनिकाय: चारित्रस्याश्रयः, तत्सद्भावेऽप्यभव्यानां शुद्धात्माभावेन चारित्रस्याभावात्। शुद्ध आत्मैव ज्ञानस्याश्रयः, गाथार्थ:- [ आचारादि] आचारांगादि शास्त्र [ ज्ञानं] ज्ञान है, [जीवादि] जीवादि तत्त्व [दर्शनं विज्ञेयम् च] दर्शन जानना चाहिये [च] तथा [षड्जीवनिकायं] छह जीव-निकाय [ चरित्रं] चारित्र है- [ तथा तु] ऐसा तो [ व्यवहारः भणति ] व्यवहारनय कहता है। [खलु] निश्चयसे [ मम आत्मा] मेरा आत्मा ही [ ज्ञानम् ] ज्ञान है, [ मे आत्मा] मेरा आत्मा ही [ दर्शनं चरित्रं च] दर्शन और चारित्र है, [आत्मा ] मेरा आत्मा ही [प्रत्याख्यानम् ] प्रत्याख्यान है, [ मे आत्मा ] मेरा आत्मा ही [ संवर: योगः] संवर और योग (-समाधि, ध्यान) है। टीका:-आचारांगादि शब्दश्रुतज्ञान है क्योंकि वह (शब्दश्रुत) ज्ञानका आश्रय है, जीवादि नव पदार्थ दर्शन है क्योंकि वे (नव पदार्थ) दर्शनके आश्रय है, और छह जीव-निकाय चारित्र हैं क्योंकि वह (छह जीव-निकाय) चारित्रका आश्रय है; इसप्रकार व्यवहार है। शुद्ध आत्मा ज्ञान है क्योंकि वह (शुद्धात्मा) ज्ञानका आश्रय है, शुद्ध आत्मा दर्शन है क्योंकि वह दर्शनका आश्रय है, और शुद्ध आत्मा चारित्र है क्योंकि वह चारित्रका आश्रय है; इसप्रकार निश्चय है। इनमें, व्यवहारनय प्रतिषेध्य अर्थात् निषेध्य है, क्योंकि आचारांगादिको ज्ञानादिका आश्रयत्व अनेकांतिक हैव्यभिचारयुक्त है; (शब्दश्रुतादिको ज्ञानादिका आश्रयस्वरूप माननेमें व्यभिचार आता है क्योंकि शब्दश्रुतादिके होने पर ज्ञानादि नहीं भी होते, इसलिये व्यवहारनय प्रतिषेध्य है;) और निश्चयनय व्यवहारनयका प्रतिषेधक है, क्योंकि शुद्ध आत्माके ज्ञानादिका आश्रयत्व ऐकांतिक है। (शुद्ध आत्माको ज्ञानादिक आश्रय माननेमें Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy