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समयसार
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न पुनः कदाचनापि विमुच्येत। ततोऽस्य भूतार्थधर्मश्रद्धानाभावात् श्रद्धानमपि नास्ति।एवं सति तु निश्चयनयस्य व्यवहारनयप्रतिषेधो युज्यत एव।
कीदृशौ प्रतिषेध्यप्रतिषेधको व्यवहारनिश्चयनयाविति चेत्आयारादी णाणं जीवादी दंसणं च विण्णेयं । छज्जीवणिकं च तहा भणदि चरित्तं तु ववहारो।। २७६ ।। आदा खु मज्झ णाणं आदा मे दंसणं चरित्तं च। आदा पच्चक्खाणं आदा मे संवरो जोगो।। २७७ ।।
किन्तु कभी भी कर्मसे मुक्त नहीं होता। इसलिये उसे भूतार्थ धर्मके श्रद्धानका अभाव होनेसे ( यथार्थ) श्रद्धान भी नहीं है।
ऐसा होनेसे निश्चयनयके द्वारा व्यवहारनयका निषेध योग्य ही है।
भावार्थ:-अभव्य जीवके भेदज्ञान होनेकी योग्यता न होनेसे वह कर्मफलचेतनाको जानता है किन्तु ज्ञानचेतनाको नहीं जानता; इसलिये उसे शुद्ध आत्मिक धर्मकी श्रद्धा नहीं है। वह शुभ कर्मको ही धर्म समझकर उसकी श्रद्धान करता है इसलिये उसके फलस्वरूप ग्रैवेयक तकके भोगोंको प्राप्त होता है किन्तु कर्मोका क्षय नहीं होता। इसप्रकार सत्यार्थ धर्मका श्रद्धान न होनेसे उसके श्रद्धान ही नहीं कहा जा सकता।
इसप्रकार व्यवहारनयके आश्रित अभव्य जीवको ज्ञान-श्रद्धान न होनेसे निश्चयनय द्वारा किया जाने वाला, व्यवहारका निषेध योग्य ही है।
__यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि-यह हेतुवादरूप अनुभवप्रधान ग्रंथ है इसलिये इसमें अनुभवकी अपेक्षासे भव्य-अभव्यका निर्णय है। अब यदि इसे अहेतुवाद आगमके साथ मिलाएं तो-अभव्यको व्यवहारनयके पक्षका सूक्ष्म, केवलीगम्य आशय रह जाता है जो कि छद्मस्थको अनुभवगोचर नहीं भी होता, मात्र सर्वज्ञदेव जानते हैं; इसप्रकार केवल व्यवहारका पक्ष रहनेसे उसके सर्वथा एकांतरूप मिथ्यात्व रहता है। इस व्यवहारनयके पक्षका आशय अभव्यके सर्वथा कभी भी मिटता ही नहीं है।
अब यह प्रश्न होता है कि “निश्चयनयके द्वारा निषेध्य व्यवहारनय, और व्यवहारनयका निषेधक जो निश्चयनय-वे दोनों नय कैसे हैं ?” अत: व्यवहार और निश्चयनयका स्वरूप कहते है:---
'आचार' आदिक ज्ञान है, जीवादि दर्शन जानना। षट्जीवकाय चरित्र है, -ये कथन नय व्यवहारका ।। २७६ ।। मुझ आत्म निश्चय ज्ञान है, मुझ आत्म दर्शन-चरित है। मुझ आत्म प्रत्याख्यान अरु, मुझ आत्म संवर योग है ।। २७७।।
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