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बंध अधिकार
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ततश्च ज्ञानश्रद्धानाभावत् सोऽज्ञानीति प्रतिनियतः।
तस्य धर्मश्रद्धानमस्तीति चेत्सद्दहदि य पत्तेदि य रोचेदि य तह पुणो य फासेदि। धम्मं भोगणिमित्तं ण दु सो कम्मक्खयणिमित्तं ।। २७५ ।।
श्रद्दधाति च प्रत्येति च रोचयति च तथा पुनश्च स्पृशति।
धर्म भोगनिमित्तं न तु स कर्मक्षयनिमित्तम्।। २७५ ।। अभव्यो हि नित्यकर्मफलचेतनारूपं वस्तु श्रद्धत्ते, नित्यज्ञानचेतनामात्रं न तु श्रद्धत्ते, नित्यमेव भेदविज्ञानानर्हत्वात्। ततः स कर्ममोक्षनिमित्तं ज्ञानमात्रं भूतार्थ धर्म न श्रद्धत्ते, भोगनिमित्तं शुभकर्ममात्रमभूतार्थमेव श्रद्धत्ते। तत एवासौ अभूतार्थधर्मश्रद्धानप्रत्ययनरोचनस्पर्शनैरुपरितनग्रैवेयकभोगमात्रमास्कन्देत्,
इसलिये ज्ञानश्रद्धानके अभावके कारण वह अज्ञानी सिद्ध हुआ।
भावार्थ:-अभव्य जीव ग्यारह अंगोंको पढ़े तथापि शुद्ध आत्माका ज्ञान-श्रद्धान नहीं होता; इसलिये उसे शास्त्रपठनने गुण नहीं किया; और इसलिये वह अज्ञानी ही
शिष्य पुनः पूछता है कि-अभव्यको धर्मका श्रद्धान तो होता है; फिर भी यह क्यों कहा कि उसके श्रद्धान नहीं है' ? इसका उत्तर कहते हैं :
वो धर्मको श्रद्धे, प्रतीत, रुचि अरु स्पर्शन करे । वो भोगहेतु धर्मको, नहिं कर्मक्षयके हेतुको ।। २७५।।
गाथार्थ:- [ सः ] वह ( अभव्य जीव ) [ भोगनिमित्तं धर्म ] भोगके निमित्तरूप धर्मकी ही [ श्रद्दधाति च] श्रद्धा करता है, [ प्रत्येति च ] उसीकी प्रतीति करता है, [ रोचयति च] उसीकी रुचि करता है [ तथा पुनः स्पृशति च] और उसीका स्पर्श करता है, [न तु कर्मक्षयनिमित्तम् ] परंतु कर्मक्षयके निमित्तरूप धर्मको नहीं। (कर्मक्षयके निमित्तरूप धर्मकी न श्रद्धा करता है, न उसकी प्रतीति करता है, न रुचि करता है और न उसका स्पर्श करता है।)
टीका:-अभव्य जीव नित्यकर्मफलचेतनारूप वस्तुकी श्रद्धा करता है किन्तु नित्यज्ञानचेतनामात्र वस्तुकी श्रद्धा नहीं करता क्योंकि वह सदा (स्वपरके) भेदविज्ञानके अयोग्य है। इसलिये वह कर्मों से छूटने के निमित्तरूप, ज्ञानमात्र, भूतार्थ ( सत्यार्थ) धर्मकी श्रद्धा नहीं करता, किन्तु भोगके निमित्तरूप, शुभकर्ममात्र, अभूतार्थ धर्मकी ही श्रद्धा करता है; इसलिये वह अभूतार्थ धर्मकी श्रद्धा, प्रतीति, रुचि और स्पर्शनसे ऊपरके ग्रैवेयक तकके भोगमात्रको प्राप्त होता है
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