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समयसार
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तस्यैकादशाङ्गज्ञानमस्ति इति चेत्
मोक्खं असद्दहंतो अभवियसत्तो दु जो अधीएज्ज। पाठो ण करेदि गुणं असद्दहंतस्स णाणं तु।। २७४ ।।
मोक्षमश्रद्दधानोऽभव्यसत्त्वस्तु योऽधीयीत।
पाठो न करोति गुणमश्रद्दधानस्य ज्ञानं तु।। २७४ ।। मोक्षं हि न तावदभव्यः श्रद्धत्ते, शुद्धज्ञानमयात्मज्ञानशून्यत्वात्। ततोज्ञानमपि नासौ श्रद्धत्ते। ज्ञानमश्रद्दधानश्चाचाराधेकादशाङ्गं श्रुतमधीयानोऽपि श्रुताध्ययनगुणाभावान्न ज्ञानी स्यात्। स किल गुण: श्रुताध्ययनस्य यद्विविक्तवस्तुभूतज्ञान - मयात्मज्ञानं; तच्च विविक्तवस्तुभूतं ज्ञानमश्रद्दधानस्याभव्यस्य श्रुताध्ययनेन न विधातुं शक्येत। ततस्तस्य तद्गुणाभावः।
भावार्थ:-अभच्य जीव महाव्रत-समिति-गुप्तिरूप व्यवहार चारित्रका पालन करे तथापि निश्चय सम्यग्ज्ञानश्रद्धानके बिना वह चारित्र ‘सम्यक्चारित्र' नामको प्राप्त नहीं करता; इसलिये वह अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि और निश्चारित्र ही है।
अब शिष्य पूछता है कि-उसे (अभव्यको) ग्यारह अंगका ज्ञान तो होता है; फिर भी उसको अज्ञानी क्यों कहा है ? इसका उत्तर कहते हैं:
मोक्षकी श्रद्धाविहीन, अभव्य जीव शास्त्रों पढ़े। पर ज्ञानकी श्रद्धारहितको, पठन ये नहिं गुण करे ।। २७४ ।।
गाथार्थ:- [ मोक्षम् अश्रद्दधानः ] मोक्षकी श्रद्धा न करता हुआ [ यः अभव्यसत्त्वः ] जो अभव्यजीव है वह [तु अधीयीत ] शास्त्र तो पढ़ता है, [ तु] परंतु [ ज्ञानं अश्रद्दधानस्य ] ज्ञानकी श्रद्धा न करने वाले उसको [पाठ: ] शास्त्रपठन [ गुणम् न करोति ] गुण नहीं करता।
टीका:-प्रथम तो अभव्य जीव ( स्वयं) शुद्ध ज्ञानमय आत्मा के ज्ञान से शून्य होने के कारण मोक्षकी ही श्रद्धा नहीं करता। इसलिये वह ज्ञानकी भी श्रद्धा नहीं करता। और ज्ञानकी श्रद्धा न करता हुआ वह (अभव्य), आचारांग आदि ग्यारह अंगरूप श्रुतको (शास्त्रोंकी) पढ़ता हुआ भी, शास्त्रपठनके जो गुण उसके अभावके कारण ज्ञानी नहीं है। जो भिन्नवस्तुभूत ज्ञानमय आत्माका ज्ञान वह शास्त्र पठनका गुण है; और वह तो (ऐसा शुद्धात्मज्ञान तो), भिन्न वस्तुभूत ज्ञानकी श्रद्धा न करने वाले अभव्यके शास्त्र-पठनके द्वारा नहीं किया जा सकता (अर्थात् शास्त्र-पठन उसको शुद्धात्मज्ञान नहीं कर सकता); इसलिये उसके शास्त्रपठनके गुणका अभाव है;
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