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बंध अधिकार
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कथमभव्येनाप्याश्रीयते व्यवहारनयः इति चेत्
वदसमिदीगुत्तीओ सीलतवं जिणवरेहि पण्णत्तं। कुव्वंतो वि अभव्वो अप्णाणी मिच्छदिट्ठी दु।। २७३ ।।
व्रतसमितिगुप्तयः शीलतपो जिन रै: प्रज्ञप्तम्। कुन्नप्यभव्याऽज्ञानी मिथ्यादृष्टिस्तु ।। २७३ ।।
शीलतप:परिपूर्ण त्रिगुप्तिपंचसमितिपरिकलितमहिंसादिपञ्चमहाव्रतरूपं व्यवहार-चारित्रं अभव्योऽपि कुर्यात्, तथापि स निश्चारित्रोऽज्ञानी मिथ्यादृष्टिरेव, निश्चय- चारित्रहेतुभूतज्ञानश्रद्धानशून्यत्वात्।
भावार्थ:-आत्माके परके निमित्तसे जो अनेक भाव होते हैं वे सब व्यवहारनयके विषय हैं इसलिये व्यवहारनय पराश्रित हैं, और जो एक अपना स्वाभाविक भाव है वही निश्चयनयका विषय है इसलिये निश्चयनय आत्माश्रित है। अध्यवसान भी व्यवहारनयका ही विषय है इसलिये अध्यवसानका त्याग व्यवहारनयका ही त्याग है, और जो पूर्वोक्त गाथाओंमें अध्यवसानके त्यागका उपदेश है वह व्यवहारनयके ही त्यागका उपदेश है। इसप्रकार निश्चयनयको प्रधान करके व्यवहारनयके त्यागका उपदेश किया है उसका कारण यह है कि-जो निश्चयनयके आश्रयसे प्रवर्तते हैं वे ही कर्मोंसे मुक्त होते हैं और जो एकांतसे व्यवहारनयके ही आश्रयसे प्रवर्तते हैं वे कर्मों से कभी मुक्त नहीं होते।
अब प्रश्न होता है कि अभव्य जीव भी व्यवहारनयका आश्रय कैसे करते हैं ? उसका उत्तर गाथा द्वारा कहते हैं:
जिनवरप्ररूपित व्रत, समिति, गुप्ति अवरु तप-शीलको। करता हुआ भी अभव्य जीव, अज्ञानी मिथ्यादृष्टि है ।। २७३।।
गाथार्थ:- [जिनवरैः] जिनेन्द्रदेव के द्वारा [प्रज्ञप्तम्] कथित [ व्रतसमितिगुप्तयः ] व्रत, समिति , गुप्ति , [शीलतपः ] शील, तप [ कुर्वन् अपि] करता हुआ भी [अभव्यः ] अभव्य जीव [अज्ञानी] अज्ञानी [ मिथ्यादृष्टि: तु] और मिथ्यादृष्टि
टीका:-शील और तपसे परिपूर्ण, तीन गुप्ति और पाँच समितियोंके प्रति सावधानीसे युक्त, अहिंसादि पाँच महाव्रतरूप व्यवहारचारित्र ( का पालन ) अभव्य भी करता है; तथापि वह (अभव्य ) निश्चारित्र (-चारित्ररहित), अज्ञानी और मिथ्यादृष्टि ही है क्योंकि वह निश्चयचारित्रके कारणरूप ज्ञान-श्रद्धानसे शून्य है।
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