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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार १३० निमित्तस्याज्ञानस्य निमित्तम्। कदाऽस्याः कर्तृकर्मप्रवृत्तेर्निवृत्तिरिति चेत्जइया इमेण जीवेण अप्पणो आसवाण य तहेव। णादं होदि विसेसंतरं तु तइया ण बंधो से।। ७१ ।। यदानेन जीवेनात्मनः आस्रवाणां च तथैव।। ज्ञातं भवति विशेषान्तरं तु तदा न बन्धस्तस्य।। ७१ ।। इहं किल स्वभावमा 'वस्तु, स्वस्य भवनं तु स्वभावः। तेन ज्ञानस्य भवनं खल्वात्मा, क्रोधादेर्भवनं क्रोधादिः। अथ ज्ञानस्य यद्वनं तन्न क्रोधादेरपि भवनं, निमित्त जो अज्ञान उसका निमित्त है। भावार्थ:-यह आत्मा, जैसे अपने ज्ञानस्वभावरूप परिणमित होता है उसी प्रकार जबतक क्रोधादिरूप भी परिणमित होता है, ज्ञानमें और क्रोधादिमें भेद नहीं जानता, तबतक उसके कर्ताकर्मकी प्रवृत्ति है; क्रोधादिरूप परिणमित होता हुआ वह स्वयं कर्ता है और क्रोधादि उसका कर्म है। और अनादि अज्ञानसे तो कर्ताकर्मकी प्रवृत्ति है, कर्ताकर्मकी प्रवृत्तिसे बंध है और उस बंधके निमित्तसे अज्ञान है; इसप्रकार अनादि संतान (प्रवाह) है, इसलिये उसमें इतरेतराश्रय दोष भी नहीं आता। इसप्रकार जबतक आत्मा क्रोधादि कर्मका कर्ता होकर परिणमित होता है तबतक कर्ताकर्मकी प्रवृत्ति है और तबतक कर्मका बंध होता है। अब प्रश्न करता है कि इस कर्ताकर्मकी प्रवृत्तिका अभाव कब होता है ? इसका उत्तर कहते हैं: ये जीव ज्यों ही आस्रवोंका, त्यों हि अपने आत्मका। जाने विशेषांतर, तब ही बंधन नहीं उसको कहा।।७१।। गाथार्थ:- [ यदा] जब [अनेन जीवेन ] यह जीव [ आत्मनः ] आत्माका [ तथा एव च ] और [ आस्रवाणां] आस्रवोंका [ विशेषान्तरं] अन्तर और भेद [ ज्ञातं भवति] जानता है [ तदा तु] तब [ तस्य] उसे [ बन्धः न ] बंध नहीं होता। टीका:-इस जगतमें वस्तु है वह (अपने ) स्वभावमात्र ही है, और 'स्व 'का भवन (होना) वह स्व-भाव है ( अर्थात् अपना जो होना-परिणमना सो स्वभाव है); इसलिये निश्चयसे ज्ञानका होना-परिणमना सो आत्मा है और क्रोधादिका होनापरिणमना सो क्रोधादि है। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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