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बंध अधिकार
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अथ प्रविशति बन्धः।
( शार्दूलविक्रीडित) रागोद्गारमहारसेन सकलं कृत्वा प्रमत्तं जगत् क्रीडन्तं रसभावनिर्भरमहानाट्येन बन्धं धुनत्। आनन्दामृतनित्यभोजि सहजावस्थां स्फुटं नाटयद् धीरोदारमनाकुलं निरुपधि ज्ञानं समुन्मज्जति।।१६३ ।।
---००० दोहा ०००---
रागादिकतें कर्मकौ , बंध जानि मुनिराय,
तजै तिनहिं समभाव करि, नमुँ सदा तिन पाँय।। प्रथम टीकाकार कहते हैं कि 'अब बंध प्रवेश करता है। जैसे नृत्यमंच पर स्वाँग प्रवेश करता है उसीप्रकार रंगभूमिमें बंधतत्त्वका स्वाँग प्रवेश करता है।
उसमें प्रथम ही, सर्व तत्त्वोंको यथार्थ जाननेवाला सम्यग्ज्ञान बंधको दूर करता हुआ प्रगट होता है, इस अर्थका मंगलरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ राग-उद्गार-महारसेन सकलं जगत् प्रमत्तं कृत्वा] जो (बंध) रागके उदयरूपी महा रस (मदिरा) के द्वारा समस्त जगतको प्रमत्त (-मतवाला) करके, [ रस-भाव-निर्भर-महा-नाट्येन क्रीडन्तं बन्धं] रसके भावसे (अर्थात् रागरूपी मतवालेपनसे) भरे हुए महा नृत्य के द्वारा खेल ( नाच) रहा है ऐसे बन्धको [धुनत् ] उड़ाता-दूर करता हुआ, [ ज्ञानं] ज्ञान [ समुन्मज्जति] उदयको प्राप्त होता है। वह ज्ञान [आनन्द-अमृत-नित्य-भोजि] आनंदरूपी अमृतका नित्य भोजन करनेवाला है, [ सहज-अवस्थां स्फुटं नाटयत् ] अपनी ज्ञातृक्रियारूप सहज अवस्थाको प्रगट नचा रहा है, [धीर-उदारम् ] धीर है, उदार ( अर्थात् महान विस्तारवाला, निश्चल है) है, [अनाकुलं] अनाकुल है ( अर्थात् जिसमें किंचित भी आकुलताका कारण नहीं है), [ निरुपधि] उपाधि रहित (अर्थात् परिग्रह रहित या जिसमें कोई परद्रव्य संबंधी ग्रहण-त्याग नहीं है ऐसा) है।
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