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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार ३६२ इति निर्जरा निष्क्रान्ता। इति श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां निर्जराप्ररूपकः षष्ठोऽङ्कः।। समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ मिथ्यात्व-अनंतानुबंधी ही है; उनका अभाव हो जाने पर फिर उसका बंध नहीं होता; और जहाँ आत्मा ज्ञानी हुआ वहाँ अन्य बंधकी गणना कौन करता है ? वृक्षकी जड़ कट जानेपर फिर हरे पत्ते रहने की अवधि कितनी होती है ? इसलिये इस अध्यात्मशास्त्रमें सामान्यतया ज्ञानी-अज्ञानी होने के सम्बन्धमें ही प्रधान कथन है। ज्ञानी होनेके बाद जो कुछ कर्म रहे हों वे सहज ही मिटते जायेंगे। निम्नलिखित दृष्टांतके अनुसार ज्ञानीके संबन्धमें समझ लेना चाहिये। कोई पुरुष दरिद्रताके कारण एक पडेमें रहता था। भाग्योदयसे उसे धन-धान्यसे परिपर्ण बडे महलकी प्राप्ति हो गई इसलिये वह उसमें रहने को गया। यद्यपि उस महलमें बहुत दिनों का कूड़ा कचरा भरा हुआ था तथापि जिस दिन उसने आकर महलमें प्रवेश किया उस दिनसे ही वह उस महलका स्वामी हो गया, संपत्तिवान हो गया। अब वह कूड़ा कचरा साफ करना है सो वह क्रमशः अपनी शक्तिके अनुसार साफ करता है। जब सारा कचरा साफ हो जायेगा और महल उज्ज्वल हो जायेगा तब वह परमानंदको भोगेगा। इसीप्रकार ज्ञानीके संबन्धमें समझना चाहिये। १६२। टीका:-इसप्रकार निर्जरा ( रंगभूमिमेंसे ) बाहर निकल गई। भावार्थ:-इसप्रकार, जिसने रंगभूमिमें प्रवेश किया था वह निर्जरा अपना स्वरूप प्रगट बताकर बाहर निकल गई। ( सवैया) सम्यकवंत महंत सदा समभाव रहै दुःख संकट आये, कर्म नवीन बंधै न तबै अर पूरव बंध झडै बिन भाये; पूरण अंग सुदर्शनरूप धरै नित ज्ञान बढ़े निज पाये, यों शिवमारग साधि निरंतर आनंदरूप निजातम थाये। इसप्रकार श्री समयसारकी ( श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार परमागमकी) श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामक टीकामें निर्जराका प्ररूपक छठवाँ अंक समाप्त हुआ। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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