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बंध अधिकार
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अध्यवसाननिमित्तं जीवा बध्यन्ते कर्मणा यदि हि।
मुच्यन्ते मोक्षमार्गे स्थिताश्च तत् किं करोषि त्वम्।। २६७ ।। यत्किल बन्धयामि मोचयामीत्यध्यवसानं तस्य हि स्वार्थक्रिया यद्वन्धनं मोचनं जीवानाम्। जीवस्त्वस्याध्यवसायस्य सद्भावेऽपि सरागवीतरागयोः स्वपरिणामयोः अभावान्न बध्यते, न मुच्यते; सरागवीतरागयोः स्वपरिणामयोः सद्भावात्तस्याध्य वसायस्याभावेऽपि बध्यते, मुच्यते च। ततः परत्राकिञ्चित्करत्वान्नेदमध्यवसानं स्वार्थक्रियाकारि; ततश्च मिथ्यैवेति भावः।
__ (अनुष्टुभ् ) अनेनाध्यवसायेन निष्फलेन विमोहितः। तत्किञ्चनापि नैवास्ति नात्मात्मानं करोति यत्।।१७१ ।।
गाथार्थ:-हे भाई! [ यदि हि] यदि वास्तवमें [अध्यवसाननिमित्तं ] अध्यवसानके निमित्तसे [ जीवाः] जीव [ कर्मणा बध्यन्ते] कर्मसे बँधते हैं [च] और [ मोक्षमार्गे स्थिताः] मोक्षमार्गमें स्थित [ मुच्यन्ते] छूटते हैं, [ तद् ] तो [त्वम् किं करोषि ] तू क्या करता है ? ( तेरा तो बाँधने-छोड़नेका अभिप्राय व्यर्थ गया।)
टीका:- मैं बाँधता हूँ, छुड़ाता हूँ' ऐसा जो अध्यवसान उसकी अपनी अर्थक्रिया जीवोंको बाँधना, छोड़ना है। किन्तु जीव तो, इस अध्यवसायका सद्भाव होनेपर भी, अपने सराग-वीतराग परिणामके अभावसे नहीं बँधता और मुक्त नहीं होता; तथा अपने सराग-वीतराग परिणामके सद्भावसे, उस अध्यवसायका अभाव होनेपर भी, बँधता है और छूटता है। इसलिये परमें अकिंचित्कर होनेसे ( अर्थात् कुछ नहीं कर सकता होनेसे) यह अध्यवसान अपनी अर्थक्रिया करनेवाला नहीं है; और इसलिये मिथ्या ही है। ऐसा भाव ( आशय ) है।
भावार्थ:-जो हेतु कुछ भी नहीं करता वह अकिंचित्कर कहलाता है। यह बाँधने-छोड़नेका अध्यवसान भी परमें कुछ नहीं करता, क्योंकि यदि वह अध्यवसान हो तो भी जीव अपने सराग-वीतराग परिणामसे बंध-मोक्षको प्राप्त होता है, और वह अध्यवसान हो तो भी अपने सराग-वीतराग परिणामके अभावसे बंध-मोक्षको प्राप्त नहीं होता। इसप्रकार अध्यवसान परमें अकिंचित्कर होनेसे स्व-अर्थक्रिया करनेवाला नहीं है इसलिये मिथ्या है।
अब इस अर्थका कलशरूप और आगामी कथनका सूचक श्लोक कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [अनेन निष्फलेन अध्यवसायेन मोहितः] इस निष्फल (निरर्थक) अध्यवसायसे मोहित होता हुआ [ आत्मा ] आत्मा [ तत् किञ्चन अपि न एव अस्ति यत् आत्मानं न करोति ] अपनेको सर्वरूप करता है,
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