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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates बंध अधिकार ३९१ अध्यवसाननिमित्तं जीवा बध्यन्ते कर्मणा यदि हि। मुच्यन्ते मोक्षमार्गे स्थिताश्च तत् किं करोषि त्वम्।। २६७ ।। यत्किल बन्धयामि मोचयामीत्यध्यवसानं तस्य हि स्वार्थक्रिया यद्वन्धनं मोचनं जीवानाम्। जीवस्त्वस्याध्यवसायस्य सद्भावेऽपि सरागवीतरागयोः स्वपरिणामयोः अभावान्न बध्यते, न मुच्यते; सरागवीतरागयोः स्वपरिणामयोः सद्भावात्तस्याध्य वसायस्याभावेऽपि बध्यते, मुच्यते च। ततः परत्राकिञ्चित्करत्वान्नेदमध्यवसानं स्वार्थक्रियाकारि; ततश्च मिथ्यैवेति भावः। __ (अनुष्टुभ् ) अनेनाध्यवसायेन निष्फलेन विमोहितः। तत्किञ्चनापि नैवास्ति नात्मात्मानं करोति यत्।।१७१ ।। गाथार्थ:-हे भाई! [ यदि हि] यदि वास्तवमें [अध्यवसाननिमित्तं ] अध्यवसानके निमित्तसे [ जीवाः] जीव [ कर्मणा बध्यन्ते] कर्मसे बँधते हैं [च] और [ मोक्षमार्गे स्थिताः] मोक्षमार्गमें स्थित [ मुच्यन्ते] छूटते हैं, [ तद् ] तो [त्वम् किं करोषि ] तू क्या करता है ? ( तेरा तो बाँधने-छोड़नेका अभिप्राय व्यर्थ गया।) टीका:- मैं बाँधता हूँ, छुड़ाता हूँ' ऐसा जो अध्यवसान उसकी अपनी अर्थक्रिया जीवोंको बाँधना, छोड़ना है। किन्तु जीव तो, इस अध्यवसायका सद्भाव होनेपर भी, अपने सराग-वीतराग परिणामके अभावसे नहीं बँधता और मुक्त नहीं होता; तथा अपने सराग-वीतराग परिणामके सद्भावसे, उस अध्यवसायका अभाव होनेपर भी, बँधता है और छूटता है। इसलिये परमें अकिंचित्कर होनेसे ( अर्थात् कुछ नहीं कर सकता होनेसे) यह अध्यवसान अपनी अर्थक्रिया करनेवाला नहीं है; और इसलिये मिथ्या ही है। ऐसा भाव ( आशय ) है। भावार्थ:-जो हेतु कुछ भी नहीं करता वह अकिंचित्कर कहलाता है। यह बाँधने-छोड़नेका अध्यवसान भी परमें कुछ नहीं करता, क्योंकि यदि वह अध्यवसान हो तो भी जीव अपने सराग-वीतराग परिणामसे बंध-मोक्षको प्राप्त होता है, और वह अध्यवसान हो तो भी अपने सराग-वीतराग परिणामके अभावसे बंध-मोक्षको प्राप्त नहीं होता। इसप्रकार अध्यवसान परमें अकिंचित्कर होनेसे स्व-अर्थक्रिया करनेवाला नहीं है इसलिये मिथ्या है। अब इस अर्थका कलशरूप और आगामी कथनका सूचक श्लोक कहते हैं: श्लोकार्थ:- [अनेन निष्फलेन अध्यवसायेन मोहितः] इस निष्फल (निरर्थक) अध्यवसायसे मोहित होता हुआ [ आत्मा ] आत्मा [ तत् किञ्चन अपि न एव अस्ति यत् आत्मानं न करोति ] अपनेको सर्वरूप करता है, Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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