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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार ३९० दुःखितसुखितान् जीवान् करोमि बन्धयामि तथा विमोचयामि। या एषा मूढमतिः निरर्थिका सा खलु ते मिथ्या।। २६६ ।। परान् जीवान् दुःखयामि सुखयामीत्यादि, बन्धयामि मोचयामीत्यादि वा, यदेतदध्यवसानं तत्सर्वमपि, परभावस्य परस्मिन्नव्याप्रियमाणत्वेन स्वार्थक्रियाकारित्वाभावात्, खकुसुमं लुनामीत्यध्यवसानवन्मिथ्यारूपं, केवलमात्मनोऽनर्थायैव। कुतो नाध्यवसानं स्वार्थक्रियाकारीति चेत्अज्झवसाणणिमित्तं जीवा बज्झंति कम्मणा जदि हि। मुच्चंति मोक्खमग्गे ठिदा य ता किं करेसि तुम।। २६७ ।। गाथार्थ:-हे भाई! [ जीवान् ] मैं जीवोंको [ दुःखितसुखितान् ] दुःखी-सुखी [ करोमि ] करता हूँ, [ बन्धयामि ] बँधाता हूँ [ तथा विमोचयामि] तथा छुड़ाता हूँ, [ या एषा ते मूढमतिः] ऐसी जो यह तेरी मूढ़ मति [-मोहित बुद्धि ] है [ सा] वह [निरर्थिका ] निरर्थक होनेसे [ खलु ] वास्तवमें [ मिथ्या ] मिथ्या है। टीका:-मैं पर जीवोंको दुःखी करता हूँ, सुखी करता हूँ इत्यादि तथा बँधाता हूँ, छुड़ाता हूँ इत्यादि जो यह अध्यवसान है वह सब, परभावका परमें व्यापार न होने के कारण अपनी अर्थक्रिया करने वाला नहीं है इसलिये, 'मैं आकाश पुष्प को तोड़ता हूँ' ऐसे अध्यवसानकी भाँति मिथ्यारूप है, केवल अपने अनर्थके लिये ही है (अर्थात् मात्र अपने लिये ही हानिका कारण होता है, परका तो कुछ कर नहीं सकता)। भावार्थ:-जो अपनी अर्थक्रिया (-प्रयोजनभूत क्रिया) नहीं कर सकता वह निरर्थक है, अथवा जिसका विषय नहीं है वह निरर्थक है। जीव पर जीवोंको दुःखीसुखी आदि करने की बुद्धि करता है, परंतु पर जीव अपने किये दुःखी-सुखी नहीं होते; इसलिये वह बुद्धि निरर्थक है और निरर्थक होनेसे मिथ्या है-झूठी है। अब यह प्रश्न होता है कि अध्यवसान अपनी अर्थक्रिया करनेवाला कैसे नहीं है ? इसका उत्तर कहते हैं: सब जीव अध्यवसानकारण कर्मसे बँधते जहाँ । अरु मोक्षमार्ग थित जीव छूटें, तू ही क्या करता भला ?।।२६७।। Please inform us of any errors on [email protected]
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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