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समयसार
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सकलपरद्रव्यनिमित्तकविशेषचेतनचञ्चल-कल्लोलनिरो धेनेममेव चेतयमान: स्वाज्ञानेनात्मन्युत्प्लवमानानेतान् भावानखिलानेव क्षपयामीत्यात्मनि निश्चित्य चिरसंगृहीतमुक्तपोतपात्रः समुद्रावर्त इव झगित्येवोद्वान्तसमस्त विकल्पोऽकल्पितमचलितममलमात्मा-नमालम्बमानो
विज्ञानघनभूतः खल्वयमात्मास्रवेभ्यो निवर्तते।
कथं ज्ञानास्रवनिवृत्त्योः समकालत्वमिति चेत्जीवणिबद्धा एदे अधुव अणिच्चा तहा असरणा य। दुक्खा दुक्खफल त्ति य णादूण णिवत्तदे तेहिं।। ७४ ।। जीवनिबद्धा एते अध्रुवा अनित्यास्तथा अशरणाश्च। दुःखानि दुःखफला इति च ज्ञात्वा निवर्तते तेभ्यः।। ७४ ।।
समस्त परद्रव्यके निमित्तसे विशेषरूप चेतनमें होती हुई चंचल कल्लोलोंके निरोधसे इसको ही (इस चैतन्यस्वरूपको ही) अनुभवन करता हुआ, अपने अज्ञान से आत्मामें उत्पन्न होते हुए जो यह क्रोधादिक भाव हैं उन सबका क्षय करता हूँ-ऐसा आत्मामें निश्चय करके, जिसने बहुत समयसे पकड़े हुए जहाजको छोड़ दिया, ऐसे समुद्रके भँवर की भाँति जिसने सर्व विकल्पोंको शीघ्र ही वमन कर दिया है ऐसे , निर्विकल्प, अचलित निर्मल आत्माका अवलंबन करता हुआ, विज्ञानघन होता हुआ, यह आत्मा आस्रवोंसे निवृत्त होता है।
भावार्थ:-शुद्धनयसे ज्ञानीने आत्माका ऐसा निश्चय किया कि 'मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, परद्रव्य प्रति ममतारहित हूँ, ज्ञानदर्शनसे पूर्ण वस्तु हूँ '। जब वह ज्ञानी आत्मा ऐसे अपने स्वरूपमें रहता हुआ उसी के अनुभवरूप हो तब क्रोधादिक आस्रव क्षय को प्राप्त होते हैं। जैसे समुद्रके आवर्त (भँवर) ने बहुत समयसे जहाज को पकड़ रखा हो और जब वह आवर्त्त शमन हो जाता है तब वह उस जहाज को छोड़ देता है, इसीप्रकार आत्मा विकल्पोंके आवर्त को शमन करता हुआ आस्रवोंको छोड़ दता है।
अब प्रश्न करता है कि ज्ञान होनेका और आस्रवोंकी निवृत्तिका समकाल ( एककाल) कैसे है ? उसके उत्तररूप गाथा कहते हैं:
ये सर्व जीवनिबद्ध , अध्रुव , शरणहीन, अनित्य हैं। ये दुःख, दुखफल जानके इनसे निवर्तन जीव करे।।७४।।
गाथार्थ:- [एते] यह आस्रव [जीवनिबद्धाः] जीवके साथ निबद्ध हैं, [अध्रुवा: ] अध्रुव हैं, [ अनित्याः ] अनित्य हैं [ तथा च] तथा [ अशरणाः ] अशरण हैं, [च ] और वे [ दुःखानि ] दुःखरूप हैं, [ दुःखफलाः ] दुःख ही जिनका फल है ऐसे हैं,
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