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कर्ता-कर्म अधिकार
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केन विधिनायमास्रवेभ्यो निवर्तत इति चेत
अहमेक्को खलु सुद्धो णिम्ममओ णाणदंसणसमग्गो। तम्हि ठिदो तचितो सव्वे एदे खयं णेमि।। ७३ ।।
अहमेकः खलु शुद्धः निर्ममतः ज्ञानदर्शनसमग्रः।
तस्मिन् स्थितस्तच्चित्तः सर्वानेतान् क्षयं नयामि।। ७३ ।। अहमयमात्मा प्रत्यक्षमक्षुण्णमनन्तं चिन्मात्रं ज्योतिरनाद्यनन्तनित्यो-दितविज्ञानघनस्वभावभावत्वादेक:,
सकलकारकचक्रप्रक्रियोत्तीर्णनिर्मलानुभूतिमात्रत्वाच्छुद्धः, पुद्गलस्वामिकस्य क्रोधादिभाववैश्वरूपस्य स्वस्य स्वामित्वेन नित्यमेवापरिणमनान्निर्ममतः, चिन्मात्रस्य महसो वस्तुस्वभावत एव सामान्यविशेषाभ्यां सकलत्वात् ज्ञानदर्शनसमग्रः, गगनादिवत्पारमार्थिको वस्तुविशेषोऽस्मि। तदहमधुनास्मिन्नेवात्मनि निखिलपरद्रव्य प्रवृत्तिनिवृत्त्या निश्चलमवतिष्ठमान:
__अब प्रश्न करता है कि यह आत्मा किस विधिसे आस्रवोंसे निवृत्त होता है ? उसके उत्तररूप गाथा कहते हैं:
मैं एक , शुद्ध , ममत्वहीन रु, ज्ञानदर्शनपूर्ण हूँ। इसमें रहूँ स्थित, लीन इसमें, शीघ्र ये सब क्षय करूँ।। ७३।।
गाथार्थ:-ज्ञानी विचार करता है कि:-- [ खलु ] निश्चयसे [अहम् ] मैं [ एकः ] एक हूँ, [शुद्धः ] शुद्ध हूँ, [ निर्ममतः ] ममतारहित हूँ, [ ज्ञानदर्शनसमग्रः] ज्ञानदर्शनसे पूर्ण हूँ; [ तस्मिन् स्थितः ] उस स्वभावमें रहता हुआ, [ तचित्तः ] उसमें (-उस चैतन्य–अनुभवमें) लीन होता हुआ (मैं) [ एतान् ] इन [ सर्वान् ] क्रोधादिक सर्व आस्रवोंको [क्षयं] क्षयको [ नयामि ] प्राप्त कराता हूँ।
टीका:-मैं यह आत्मा-प्रत्यक्ष अखंड अनंत चिन्मात्र ज्योति-अनादि-अनंत नित्य-उदयरूप विज्ञानघनस्वभावभावत्वके कारण एक हूँ; ( कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान और अधिकरणस्वरूप) सर्व कारकोंके समूहकी प्रक्रियासे पारको प्राप्त जो निर्मल अनुभूति, उस अनुभूतिमात्रपनेसे शुद्ध हूँ; पुद्गलद्रव्य जिसका स्वामी है ऐसे जो क्रोधादिभावोंका विश्वरूपत्व (अनेकरूपत्व) उसके स्वामीपने रूप स्वयं सदा ही नहीं परिणमता होनेसे ममतारहित हूँ; चिन्मात्र ज्योतिका (आत्माका), वस्तुस्वभावसे ही सामान्य और विशेष से परिपूर्णता होनेसे, मैं ज्ञानदर्शन से परिपूर्ण हूँ। -ऐसा मैं आकाशादि द्रव्यकी भाँति पारमार्थिक वस्तु विशेष हूँ। इसलिये अब मैं समस्त परद्रव्य प्रवृत्तिसे निवृत्ति द्वारा इसी आत्मस्वभावमें निश्चल रहता हुआ,
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