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समयसार
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( मालिनी) परपरिणतिमुज्झत् खण्डयनेदवादानिदमुदितमखण्डं ज्ञानमुच्चण्डमुचैः। ननु कथमवकाशः कर्तृकर्मप्रवृत्तैरिह भवति कथं वा पौद्गलः कर्मबन्धः ।। ४७ ।।
वह अज्ञान कहलाता था और मिथ्यात्व के जाने के बाद अज्ञान नहीं किन्तु ज्ञान ही है। उसमें जो कुछ चारित्रमोह संबंधी विकार है उसका स्वामी ज्ञानी नहीं है इसलिये ज्ञानीके बंध नहीं हैं; क्योंकि विकार जो कि बंधरूप है और बंधका कारण है, वह तो बंधकी पंक्तिमें है, ज्ञानकी पंक्तिमें नहीं। इस अर्थका समर्थनरूप कथन आगे गाथाओंमें आयेगा।
यहाँ कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [परपरिणतिम् उज्झत् ] परपरिणतिको छोड़ता हुआ, [भेदवादान् खण्डयत् ] भेदकें कथनोंको तोड़ता हुआ, [इदम् अखण्डम् उच्चण्डम् ज्ञानम् ] यह अखंड और अत्यंत प्रचंड ज्ञान [ उच्चैः उदितम् ] प्रत्यक्ष उदय को प्राप्त हुआ है, [ ननु ] अहो! [ इह ] ऐसे ज्ञानमें [ कर्तृकर्मप्रवृतेः ] ( परद्रव्यके ) कर्ताकर्मकी प्रवृत्तिका [कथम् अवकाशः ] अवकाश कैसे हो सकता है ? [वा] तथा [पौद्गलः कर्मबन्धः ] पौद्गलिक कर्मबंध भी [ कथं भवति ] कैसे हो सकता है ? (कदापि नहीं हो सकता।)
(ज्ञेयोंके निमित्तसे तथा क्षयोपशमके विशेषसे ज्ञानमें जो अनेक खंडरूप आकार प्रतिभासित होते थे उनसे रहित ज्ञानमात्र आकार अब अनुभवमें आया इसलिये ज्ञान को 'अखंड' विशेषण दिया है। मतिज्ञान आदि जो अनेक भेद कहे जाते थे उन्हें दूर करता हुआ उदयको प्राप्त हुआ है इसलिये भेदके कथनोंको तोडता हआ' ऐसा कहा है। परके निमित्तसे रागादिरूप परिणमित होना था उस परिणतिको छोड़ता हुआ उदयको प्राप्त हुआ है इसलिये ‘परपरिणतिको छोड़ता हुआ' ऐसा कहा है। परके निमित्तसे रागादिरूप परिणमित नहीं होता, बलवान है इसलिये ‘अत्यंत प्रचंड' कहा है।)
भावार्थ:-कर्मबंध तो अज्ञानसे हुई कर्ताकर्मकी प्रवृत्तिसे था। अब जब भेदभावको और परपरिणतिको दूर करके एकाकार ज्ञान प्रगट हुआ तब भेदरूप कारककी प्रवृत्ति मिट गई; तब फिर अब बंध किस लिये होगा ? अर्थात् नहीं होगा। ४७।
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