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किञ्च यदिदमात्मास्रवयोर्भेदज्ञानं तत्किमज्ञानं किं वा ज्ञानम् ? यद्यज्ञानं तदा तदभेदज्ञानान्न तस्य विशेषः। ज्ञानं चेत् किमास्रवेषु प्रवृत्तं किं वास्रवेभ्यो निवृत्तम् ? आस्रवेषु प्रवृत्तं चेत्तदापि तदभेदज्ञानान्न तस्य विशेषः । आस्रवेभ्यो निवृत्तं चेत्तर्हि कथं न ज्ञानादेव बन्धनिरोधः । इति निरस्तोऽज्ञानांशः क्रियानयः। यत्त्वात्मास्रवयोर्भेदज्ञानमपि नास्रवेभ्यो निवृत्तं भवति तज्ज्ञानमेव न भवतीति ज्ञानांशो ज्ञाननयोऽपि निरस्तः।
और, जो यह आत्मा और आस्रवोंका भेदज्ञान है सो अज्ञान है या ज्ञान ? यदि अज्ञान है तो आत्मा और आस्रवोंके अभेदज्ञानसे उसकी कोई विशेषता नहीं हुई। और यदि ज्ञान है तो वह ज्ञान आस्रवोंमें प्रवृत है या उनसे निवृत्त है? यदि आस्रवोंमें प्रवृत्त होता है तो भी आत्मा और आस्रवोंके अभेदज्ञानसे कोई विशेषता नहीं हुई। और यदि आस्रवोंसे निवृत्त है तो ज्ञानसे ही बंधका निरोध सिद्ध हुआ क्यों न कहलायेगा ? (सिद्ध हुआ ही कहलायेगा । ) ऐसा सिद्ध होनेसे अज्ञानका अंश ऐसे क्रियानयका खंडन हुआ। और यदि आत्मा और आस्रवोंका भेदज्ञान आस्रवोंसे निवृत्त न हो तो वह ज्ञान ही नहीं है ऐसा सिद्ध होनेसे ज्ञानके अंश ऐसे ( एकांत ) ज्ञाननयका भी खंडन हुआ।
भावार्थ:-आस्रव अशुचि है, जड़ है, दुःखके कारण हैं और आत्मा पवित्र है, ज्ञाता है, सुखस्वरूप है। इसप्रकार लक्षणभेदसे दोनोंको भिन्न जानकर आस्रवोंसे आत्मा निवृत्त होता है और उसे कर्मका बंध नहीं होता । आत्मा और आस्रवोंका भेद जाननेपर भी यदि आत्मा आस्रवोंसे निवृत्त न हो तो वह ज्ञान ही नहीं, किन्तु अज्ञान ही है। यहाँ कोई प्रश्न करे कि अविरत सम्यग्दृष्टिको मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी प्रकृतियोंका तो आस्रव नहीं होता किन्तु अन्य प्रकृतियोंका तो आस्रव होकर बंध होता. है; इसलिये उसे ज्ञानी कहना या अज्ञानी ? उसका समाधान:- सम्यग्दृष्टि जीव ज्ञानी ही हैं क्योंकि वह अभिप्रायपूर्वकके आस्रवोंसे निवृत्त हुआ है। उसे प्रकृतियोंका जो आस्रव तथा बंध होता है वह अभिप्रायपूर्वक नहीं है। सम्यग्दृष्टि होने के बाद परद्रव्यके स्वामित्वका अभाव है; इसलिये, जब तक उसके चारित्रमोहका उदय है तब तक उसके उदयानुसार जो आस्रव-बंध होता है उसका स्वामित्व उसको नहीं है। अभिप्रायमें तो वह आस्रव - बंधसे सर्वथा निवृत्त ही होना चाहता है। इसलिये वह ज्ञानी ही है।
जो यह कहा है कि ज्ञानीको बंध नहीं होता उसका कारण इसप्रकार है:मिथ्यात्वसंबंधी बंध जो कि अनंत संसारका कारण है वही यहाँ प्रधानतया विवक्षित है। अविरति आदिसे जो बंध होता है वह अल्प स्थिति - अनुभागवाला है, दीर्घ संसारका कारण नहीं है; इसलिये वह प्रधान नहीं माना गया । अथवा तो ऐसा कारण है कि:- ज्ञान बंधका कारण नहीं है। जब तक ज्ञानमें मिथ्यात्वका उदय था तब तक
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