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Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates मोक्ष अधिकार
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ननु किमनेन शुद्धात्मोपासनप्रयासेन ? यतः प्रतिक्रमणादिनैव निरपराधो भवत्यात्मा; सापराधस्याप्रतिक्रमणादेस्तदनपोहकत्वेन विषकुम्भत्वे सति प्रतिक्रमणा देस्तदपोहकत्वेनामृतकुम्भत्वात्। उक्तं च व्यवहाराचारसूत्रे - अप्पडिकमणमप्पडिसरणं अप्पडिहारो अधारणा चेव । अणियत्ती य अणिंदागरहासोही य विसकुंभो ।। १।। परिकमणं पडिसरणं परिहारो धारणा णियत्ती य। णिंदा गरहा सोही अट्ठविहो अमयकुंभो दु ।। २ ।।
जो सापराध आत्मा है वह तो [ नियतम् ] नियमसे [ स्वम् अशुद्धं भजन्] अपने को अशुद्ध सेवन करता हुआ [ सापराध: ] सापराध है; [ निरपराध: ] निरपराध आत्मा तो [ साधु ] भली भाँति [ शुद्धात्मसेवी भवति ] शुद्ध आत्मा का सेवन करने वाला होता है।
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(यहाँ व्यवहारनयावलंबी अर्थात् व्यवहारनयको अवलंबन करनेवाला तर्क करता है कि:-) “ शुद्ध आत्माकी उपासनाका प्रयास करनेका क्या काम है? क्योंकि प्रतिक्रमण आदिसे ही आत्मा निरपराध होता है; क्योंकि सापराधके, जो अप्रतिक्रमण आदि हैं वे, अपराधको दूर करनेवाले न होने से, विषकुंभ हैं, इसलिये जो प्रतिक्रमणादि हैं वे, अपराधको दूर करनेवाले होनेसे, अमृतकुंभ है। व्यवहारका कथन करने वाले आचारसूत्रमें भी कहा है कि :--
अप्पडिकमणमप्पडिसरणं अप्पडिहारो अधारणा चेव । अणियत्ती य अणिंदागरहासोही य विसकुम्भो ।। १ ।। पडिकमणं पडिसरणं परिहारो धारणा णियत्ती च ।
अर्थः-अप्रतिक्रमण, अप्रतिसरण, अपरिहार, अधारणा, अनिवृत्ति, अनिंदा, अगर्हा और अशुद्धि - - यह (आठ प्रकारका ) विषकुंभ है। १ ।
णिंदा गरहा सोही अट्ठविहो अमयकुम्भो दु ।। २ ।। अत्रोच्यते
'प्रतिक्रमण, `प्रतिसरण, परिहार, धारणा, "निवृत्ति, निंदा, गर्हा और 'शुद्धि- - यह आठ प्रकारका अमृतकुंभ है। २।
चित्तको स्थिर करना ।
१। प्रतिक्रमण = कृत दोषोंका निराकरण।
२। प्रतिसरण = सम्यक्त्वादि गुणोमें प्रेरणा ।
३ । परिहार = मिथ्यात्वादि दोषोंका निवारण |
४। धारणा = पंचनमस्कारादि मंत्र, प्रतिमा इत्यादि बाह्य द्रव्योंके आलंबन द्वारा
=
५। निवृत्ति
६। निंदा = आत्मसाक्षीपूर्वक दोषोंको प्रगट करना ।
७। गर्हा = गुरुसाक्षीसे दोषोंको प्रगट करना ।
८। शुद्धि
"
= बाह्य विषयकषायादि इच्छामें प्रवर्तमान चित्तको हटा लेना ।
दोष होनेपर प्रायश्चित्त लेकर विशुद्धि करना।
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