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समयसार
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अत्रोच्यते--
पडिकमणं पडिसरणं परिहारो धारणा णियत्ती य। जिंदा गरहा सोही अट्ठविहो होदि विसकुंभो।।३०६ ।। अप्पडिकमणमप्पडिसरणं अप्परिहारो अधारणा चेव। अणियत्ती य अणिंदागरहासोही अमयकुंभो।। ३०७ ।।
प्रतिक्रमणं प्रतिसरणं परिहारो धारणा निवृत्तिश्च। निन्दा गर्दा शुद्धिः अष्टविधो भवति विषकुम्भः।। ३०६ ।। अप्रतिक्रमणमप्रतिसरणमपरिहारोऽधारणा चैव। अनिवृत्तिश्चानिन्दाऽगर्हाऽशुद्धिरमृतकुम्भः।। ३०७ ।।
यस्तावदज्ञानिजनसाधारणोऽप्रतिक्रमणादिः स शुद्धात्मसिद्ध्यभावस्वभावत्वेन स्वयमेवापराधत्वाद्विषकुम्भ एव; किं तस्य विचारेण ?
उपरोक्त तर्कका समाधान आचार्यदेव (निश्चयनयकी प्रधानतासे) गाथा द्वारा करते हैं:
प्रतिक्रमण, अरु प्रतिसरण त्यों परिहरण, निवृत्ति धारणा। अरु शुद्धि , निंदा, गर्हणा , ये अष्टविध विषकुंभ है ।। ३०६ ।। अणप्रतिक्रमण , अणप्रतिसरण , अणपरिहरण, अणधारणा।
अनिवृत्ति , अनगरे , अनिंद, अशुद्धि-अमृतकुंभ है ।। ३०७।।
गाथार्थ:- [ प्रतिक्रमणम् ] प्रतिक्रमण , [प्रतिसरणम् ] प्रतिसरण, [परिहार:] परिहार, [धारणा] धारणा, [ निवृत्तिः] निवृत्ति , [ निन्दा] निंदा, [गर्दा ] गर्दा [च शुद्धिः ] और शुद्धि- [ अष्टविधः ] यह आठ प्रकारका [ विषकुम्भः ] विषकुंभ [ भवति ] हैं (क्योंकि इसमें कर्तृत्व की बुद्धि संभवित है)।
[अप्रतिक्रमणम् ] अप्रतिक्रमण, [अप्रतिसरणम् ] अप्रतिसरण, [अपरिहारः] अपरिहार, [ अधारणा] अधारणा, [ अनिवृत्तिः च] अनिवृत्ति, [अनिन्दा] अनिंदा, [अगरे ] अगरे [ च एव ] और [ अशुद्धिः ] अशुद्धि- [अमृतकुम्भः ] यह अमृतकुंभ हैं (क्योंकि इससे कर्तृत्व का निषेध है-कुछ करना ही नहीं है, इसलिये बंध नहीं होता)।
टीका:-प्रथम तो जो अज्ञानीजनसाधारण (-अज्ञानी लोगोंको साधारण ऐसे) अप्रतिक्रमणादि हैं वे तो शुद्ध आत्माकी सिद्धिके अभावरूप स्वभाववाले हैं इसलिये स्वयमेव अपराधरूप होनेसे विषकुंभ ही है; उनका विचार करनेका क्या प्रयोजन है ?
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