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यस्तु द्रव्यरूपः प्रतिक्रमणादिः स सर्वापराध - विषदोषापकर्षणसमर्थत्वेनामृत-कुम्भोऽपि प्रतिक्रमणा प्रतिक्रमणादिविलक्षणा- प्रतिक्रमणादिरूपां तार्तीयीकीं भूमिमपश्यतः स्वकार्यकरणासमर्थत्वेन विपक्षकार्य- कारित्वाद्विषकुम्भ एव स्यात्। अप्रतिक्रमणादिरूपा तृतीया भूमिस्तु स्वयं शुद्धात्मसिद्धिरूपत्वेन सर्वापराधविषदोषाणां सर्वङ्कषत्वात् साक्षात्स्वयममृतकुम्भो भवतीति व्यवहारेण द्रव्यप्रतिक्रमणादेरपि अमृतकुम्भत्वं साधयति । तयैव च निरपराधो भवति चेतयिता । तदभावे द्रव्यप्रतिक्रमणादिरप्यपराध एव । अतस्तृतीयभूमिकयैव निरपराध- त्वमित्यवतिष्ठते। तत्प्राप्त्यर्थ एवायं द्रव्यप्रतिक्रमणादिः । ततो मेति मंस्था यत्प्रति- क्रमणादीन् श्रुतिस्त्याजयति, किन्तु द्रव्यप्रतिक्रमणादिना न मुञ्चति, अन्यदपि प्रतिक्रमणाप्रतिक्रमणाद्यगोचराप्रतिक्रमणादिरूपं शुद्धात्मसिद्धिलक्षणमतिदुष्करं किमपि कारयति। वक्ष्यते चात्रैव - कम्मं जं पुव्वकयं सुहासुहमणेयवित्थरविसेसं। तत्तो णियत्तदे अप्पयं तु जो सो पडिक्कमणं ।। इत्यादि।
( क्योंकि वे तो प्रथम ही त्यागने योग्य हैं ।) और जो द्रव्यरूप प्रतिक्रमणादि हैं वे सर्व अपराधरूपी विषके दोषोको ( क्रमशः) कम करने में समर्थ होनेसे अमृतकुंभ है (ऐसा व्यवहार आचारसूत्रमें कहा है ) तथापि प्रतिक्रमण - अप्रतिक्रमणादिसे विलक्षण ऐसी अप्रतिक्रमणादिरूप तीसरी भूमिका को न देखने वाले पुरुषको वे द्रव्यप्रतिक्रमणादि ( अपराध काटनेरूप ) अपना कार्य करनेको असमर्थ होनेसे विपक्ष ( अर्थात् बंधका ) कार्य करते होनेसे विषकुंभ ही है। जो अप्रतिक्रमणादिरूप तीसरी भूमि है वह स्वयं शुद्धात्माकी सिद्धिरूप होने के कारण समस्त अपराधरूपी विषके दोषोंको सर्वथा नष्ट करनेवाली होनेसे, साक्षात् स्वयं अमृतकुंभ है और इसप्रकार ( वह तीसरी भूमि ) व्यवहारसे द्रव्यप्रतिक्रमणादिको भी अमृतकुंभत्व साधती है। वह तीसरी भूमि से ही आत्मा निरपराध होता है। उस ( तीसरी भूमि ) के अभाव में द्रव्यप्रतिक्रमणादि भी अपराध ही है। इसलिये, तीसरी भूमिसे ही निरपराधत्व है ऐसा सिद्ध होता है। उसकी प्राप्ति के लिये ही यह द्रव्यप्रतिक्रमणादि है । ऐसा होने से यह नहीं मानना कि (निश्चयनयका) शास्त्र द्रव्यप्रतिक्रमणादिको छुड़ाता है। तब फिर क्या करता है ? द्रव्यप्रतिक्रमणादिसे छुड़ा नहीं देता ( - अटका नहीं देता, संतोष नहीं मनवा देता ); इसके अतिरिक्त अन्य भी, प्रतिक्रमण - अप्रतिक्रमणादिसे अगोचर अप्रतिक्रमणादिरूप, शुद्ध आत्माकी सिद्धि जिसका लक्षण है ऐसा, अति दुष्कर कुछ करवाता है । इस ग्रन्थ में ही आगे कहेंगे कि- * कम्मं जं पुव्वकयं सुहासुहमणेयवित्थरविसेसं । तत्तो णियत्तदे अप्पयं तु जो सो पडिक्कमणं।।
* गाथा ३८३–३८५; वहाँ निश्चयप्रतिक्रमण आदिका स्वरूप कहा है।
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