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समयसार
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अतो हताः प्रमादिनो गताः सुखासीनतां प्रलीनं चापलमुन्मूलितमालम्बनम्। आत्मन्येवालानितं च चित्तमासम्पूर्णविज्ञानघनोपलब्धेः।। १८८ ।।
(अर्थ:-अनेक प्रकारके विस्तारवाले जो पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मोंसे जो अपने आत्माको निवृत्त कराता है वह आत्मा प्रतिक्रमण है।) इत्यादि।
भावार्थ:-व्यवहारनयावलंबींने कहा था कि-" लगे हुए दोषोंका प्रतिक्रमण आदि करनेसे ही आत्मा शुद्ध होता है, तो फिर पहले से ही शुद्ध आत्माके आलंबनका खेद करने का क्या प्रयोजन है ? शुद्ध होनेके बाद उसका आलंबन होगा; पहलेसे ही आलंबनका खेद निष्फल है।” उसे आचार्य समझाते है कि:-जो द्रव्यप्रतिक्रमणादिक है वे दोषोंके मिटाने वाले हैं, तथापि शुद्ध आत्मस्वरूप जो कि प्रतिक्रमणादिसे रहित है उसके आलंबनके बिना तो द्रव्यप्रतिक्रमणादिक दोषस्वरूप ही हैं, वे दोषोंके मिटाने में समर्थ नहीं; क्योंकि निश्चयकी अपेक्षा से युक्त ही व्यवहारनय मोक्षमार्गमें है, केवल व्यवहारका ही पक्ष मोक्षमार्गमें नहीं है, बंधका ही मार्ग है। इसलिये यह कहा है किअज्ञानीके जो अप्रतिक्रमणादिक हैं सो तो विषकुंभ हैं ही, उसका तो कहना ही क्या ? किन्तु व्यवहारचारित्रमें जो प्रतिक्रमणादिक कहें हैं वे भी निश्चयनयसे विषकुंभ ही हैं, क्योंकि आत्मा तो प्रतिक्रमणादिकसे रहित, शुद्ध , अप्रतिक्रमणादिस्वरूप ही है।
अब इस कथनका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [अतः] इस कथनसे , [सुख-आसीनतां गताः] सुखासीन ( सुख में बैठे हुए) [ प्रमादिनः] प्रमादी जीवोंको [हताः] हत कहा है (अर्थात् उन्हें मोक्षका सर्वया अनधिकारी कहा है), [ चापलम् प्रलीनम् ] चापल्यका ( –अविचारित कार्यका) प्रलय किया है (अर्थात् आत्मप्रतीतिसे रहित क्रियाओंको मोक्षके कारणमें नहीं माना), [आलम्बनम् उन्मूलितम् ] आलबंनको उखाड़ फेंका है (अर्थात् सम्यग्दृष्टिके द्रव्यप्रतिक्रमण इत्यादि को भी निश्चयसे बंधका कारण मान कर हेय कहा है), [ आसम्पूर्ण-विज्ञान-घन-उपलब्धेः] जबतक संपूर्ण विज्ञानघन आत्माकी प्राप्ति न हो तब तक [आत्मनि एव चितम् आलानितं च] (शुद्ध) आत्मारूपी स्तम्भसे ही चित्तको बांध रखा है (-अर्थात् व्यवहारके आलंबनसे अनेक प्रवृत्तियोंमें चित्त भ्रमण करता था उसे शुद्ध चैतन्यमात्र आत्मामें ही लगाने को कहा है क्योंकि वही मोक्षका कारण है)। १८८।
यहाँ निश्चयनयसे प्रतिक्रमणादिको विषकुंभ कहा और अप्रतिक्रमणादिको अमृतकुंभ कहा इसलिये यदि कोई विपरीत समझकर प्रतिक्रमणादिको छोड़कर प्रमादी हो जाये तो उसे समझानेके लिये कलशरूप काव्य कहते हैं:
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