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समयसार
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तथा हि-यथा क्षारत्वलक्षणं लवणमुदकीभवत् द्रवत्वलक्षणमुदकं च लवणीभवत् क्षारत्वद्रवत्वसहवृत्त्यविरोधादनुभूयते, न तथा नियोपयोगलक्षणं जीवद्रव्यं पुद्गलद्रव्यीभवत् नित्यानुपयोगलक्षणं पुद्गलद्रव्यं च जीवद्रव्यीभवत् उपयोगानुपयोगयोः प्रकाशतमसोरिव सहवृत्तिविरोधादनुभूयते। तत्सर्वथा प्रसीद, विबुध्यस्व, स्वद्रव्यं ममेदमित्यनुभव।
(मालिनी) अयि कथमपि मृत्वा तत्त्वकौतूहली सन् अनुभव भव मूर्तेः पार्श्ववर्ती मुहूर्तम्। पृथगथ विलसन्तं स्वं समालोक्य येन त्यजसि झगिति मूर्त्या साकमेकत्वमोहम्।। २३ ।।
बनता। दृष्टांत देकर इसी बातको स्पष्ट करते हैं:- जैसे खारापन जिसका लक्षण है ऐसा नमक पानीरूप होता हुआ दिखाई देता है और द्रवत्व (प्रवाहीपन) जिसका लक्षण है, ऐसा पानी नमकरूप होता दिखाई देता है,क्योंकि खारेपन और द्रवत्वका एक साथ रहनेमें अविरोध है, अर्थात् उसमें कोई बाधा नहीं आती, इसप्रकार नित्य उपयोगलक्षणवाला जीवद्रव्य पुद्गलद्रव्य होता हुआ दिखाई नहीं देता और नित्य अनुपयोग (जड़) लक्षणवाला पुद्गलद्रव्य जीवद्रव्य होता हुआ देखने में नहीं आता क्योंकि प्रकाश और अंधकारकी भाँति उपयोग और अनुपयोगका एक ही साथ रहनेमें विरोध है; जड़ और चेतन कभी भी एक नहीं हो सकते। इसलिये तू सर्व प्रकारसे प्रसन्न हो, (अपने चित्तको उज्ज्वल करके) सावधान हो, और स्वद्रव्यको ही 'यह मेरा है' इसप्रकार अनुभव कर।
भावार्थ:- यह अज्ञानी जीव पुद्गलद्रव्यको अपना मानता है; उसे उपदेश देकर सावधान किया है कि जड़ और चेतनद्रव्य दोनों सर्वथा भिन्न भिन्न हैं, कभी भी किसी भी प्रकारसे एकरूप नहीं होते ऐसा सर्वज्ञ भगवानने देखा है; इसलिये हे अज्ञानी! तू परद्रव्यको एकरूप मानना छोड़ दे; व्यर्थकी मान्यतासे बस कर।
अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [अयि ] 'अयि' यह कोमल संबोधनका सूचक अव्यय है। आचार्य कोमल संबोधनसे कहते है कि हे भाई! तू [ कथम् अपि] किसी प्रकार महा कष्ट अथवा [ मृत्वा] मरकर भी [ तत्त्वकौतूहली सन् ] तत्त्वोंका कौतूहली होकर [ मूर्तेः मुहूर्तम् पार्श्ववर्ती भव ] इस शरीरादि मूर्त द्रव्यका एक मुहूर्त ( दो घड़ी) पड़ोसी होकर [अनुभव ] आत्मानुभव कर [ अथ येन ] कि जिससे [ स्वं विलसन्तं ] अपने आत्माके विलासरूप, [ पृथक् ] सर्व परद्रव्योंसे भिन्न [ समालोक्य ] देखकर [ मूर्त्या साकम् ] इस शरीरादि मूर्तिक पुद्गलद्रव्यके साथ [ एकत्वमोहम् ] एकत्वके मोहको [ झगिति त्यजसि ] शीघ्र ही छोड़ देगा।
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