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अथाहाप्रतिबुद्धः-
पूर्वरंग
जदि जीवो ण सरीरं तित्थयरायरियसंशुदी चेव । सव्वा वि हवदि मिच्छा तेण दु आदा हवदि देहो ।। २६ ।।
यदि जीवो न शरीरं तीर्थकराचार्यसंस्तुतिश्चैव ।
सर्वापि भवति मिथ्या तेन तु आत्मा भवति देहः ।। २६ ।।
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यदि य एवात्मा तदेव शरीरं पुद्गलद्रव्यं न भवेत्तदा
भावार्थ:- यदि यह आत्मा दो घड़ी पुद्गलद्रव्यसे भिन्न अपने शुद्ध स्वरूपका अनुभव करे ( उसमें लीन हो ), परिषहके आनेपर भी डिगे नहीं, तो घातियाकर्मका नाश करके, केवलज्ञान उत्पन्न करके, मोक्षको प्राप्त हो । आत्मानुभवकी ऐसी माहिमा है तब मिथ्यात्वका नाश करके सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होना तो सुगम है; इसलिये श्री गुरु प्रधानतासे यही उपदेश दिया है ।। २३ ।।
अब अप्रतिबुद्ध जीव कहता है उसकी गाथा कहते हैं:--
जो जीव होय न देह तो, आचार्य वा तीर्थेशकी ।
मिथ्या बने स्तवना सभी, सो एकता जीवदेहकी ! ।। २६ ।।
गाथार्थ:- अप्रतिबुद्ध जीव कहता है कि-- [ यदि ] यदि [ जीवः ] जीव
[ शरीरं न ] शरीर नहीं है तो [ तीर्थकराचार्यसंस्तुतिः ] तीर्थंकरों और आचार्योंकी जो स्तुति की गई है [ सर्वा अपि ] सभी [ मिथ्या भवति ] मिथ्या है; [ तेन तु ] इसलिये हम (समझते हैं कि ) [ आत्मा ] जो आत्मा है वह [ देहः च एव ] देह ही [ भवति ]
है।
टीका:- जो आत्मा है वही पुद्गलद्रव्यस्वरूप यह शरीर है। यदि ऐसा न हो तो तीर्थंकरों और आचार्योंकी जो स्तुति की गई है वह सब मिथ्या सिद्ध होगी । वह स्तुति इसप्रकार है:
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