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मोक्ष अधिकार
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(अनुष्टुभ् ) परद्रव्यग्रहं कुर्वन् बध्येतैवापराधवान्। बध्येतानपराधो न स्वद्रव्ये संवृतो यतिः।। १८६ ।।
थेपादी अवराहे जो कुव्वदि सो उ संकिदो भमदि। मा बज्झेज्जं केण वि चोरो त्ति जणम्हि वियरंतो।। ३०९ ।। जो ण कुणदि अवराहे सो णिस्संको दु जणवदे भमदि। ण वि तस्स बज्झिदुं जे चिंता उप्पज्जदि कयाइ।।३०२ ।। एवम्हि सावराहो बज्झामि अहं तु संकिदो चेदा। जइ पुण णिरावराहो णिस्संकोहं ण बज्झामि।।३०३ ।।
[ एते ये पृथग्लक्षणाः विविधाः भावाः समुल्लसन्ति ते अहं न अस्मि] जो यह भिन्न लक्षणवाले विविध प्रकारके भाव प्रगट होते हैं वे मैं नहीं हूँ, [यतः अत्र ते समग्राः अपि मम परद्रव्यम् ] क्योंकि वे सभी मेरे लिये परद्रव्य हैं'। १८५ ।
अब आगामी कथनका सूचक श्लोक कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [परद्रव्यग्रहं कुर्वन् ] जो परद्रव्यको ग्रहण करता है [अपराधवान् ] वह अपराधी है [ बध्यते एव] इसलिये बंधमें पड़ता है, [स्वद्रव्ये संवृतः यति:] और जो स्वद्रव्यमें ही संवृत है (अर्थात् जो अपने द्रव्यमें ही गुप्त है-मग्न हैसंतुष्ट है, परद्रव्यका ग्रहण नहीं करता) ऐसा यति [अनपराध:] निरपराधी है [न बध्येत ] इसलिये बँधता नहीं है। १८६।
अब इस कथनको दृष्टांतपूर्वक गाथामें कहते हैं:अपराध चौर्यादिक करै जो पुरुष वो शंकित फिरै। को लोक फिरते हुए को, चोर जान जु बांध ले ।। ३०१।। अपराध जो करता नहीं, निःशंक लोक विषै फिरै। 'बँध जाउँगा' ऐसी कभी, चिंता न उसको होय है ।। ३०२।। त्यों आत्मा अपराधी ' मैं बँधता हुँ' यों हि सशंक है। अरु निरपराधी आत्मा ‘नाहीं बँधू' निःशंक है ।। ३०३।।
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