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समयसार
४३४
को नाम भणेद्बुधः ज्ञात्वा सर्वान् परकीयान् भावान्। ममेदमिति च वचनं जानन्नात्मानं शुद्धम्।। ३०० ।।
यो हि परात्मनोर्नियतस्वलक्षणविभागपातिन्या प्रज्ञया ज्ञानी स्यात्, स खल्वेकं चिन्मात्रं भावमात्मीयं जानाति, शेषांश्च सर्वानेव भावान् परकीयान् जानाति। एवं च जानन् कथं परभावान्ममामी इति ब्रूयात् ? परात्मनोर्निश्चयेन स्वस्वामिसम्बन्धस्यासम्भवात्। अतः सर्वथा चिद्भाव एव गृहीतव्यः, शेषाः सर्वे एव भावाः प्रहातव्या इति सिद्धान्तः।।
( शार्दूलविक्रीडित) सिद्धान्तोऽयमुदात्तचित्तचरितैर्मोक्षार्थिभिः सेव्यतां शुद्धं चिन्मयमेकमेव परमं ज्योतिः सदैवास्म्यहम्। एते ये तु समुल्लसन्ति विविधा भावाः पृथग्लक्षणाएतेऽहं नास्मि यतोऽत्र ते मम परद्रव्यं समग्रा अपि।। १८५ ।।
गाथार्थ:- [ सर्वान् भावान् ] सर्व भावोंको [ परकीयान् ] दूसरेका [ ज्ञात्वा] जानकर [क: नाम बुधः] कौन ज्ञानी, [आत्मानम् ] अपनेको [ शुद्धम् ] शुद्ध [जानम् ] जानता हुआ , [ इदम् मम ] — यह मेरा है' ( –' यह भाव मेरे हैं ' ) [ इति च वचनम् ] ऐसा वचन [ भणेत् ] बोलेगा ?
टीका:-जो (पुरुष) परके और आत्माके नियत स्वलक्षणोंके विभागमें पड़नेवाली प्रज्ञा के द्वारा ज्ञानी होता है, वह वास्तवमें एक चिन्मात्र भावको अपना जानता है और शेष सर्व भावोंको दूसरोंका जानता है। ऐसा जानता हुआ ( वह पुरुष) परभावोंको ‘यह मेरे हैं' ऐसा क्यों कहेगा ? ( नहीं कहेगा;) क्योंकि परमें और अपनेमें निश्चयसे स्वस्वामिसंबंधका असंभव है। इसलिये, सर्वथा चिद्भाव ही (एकमात्र) ग्रहण करनेयोग्य है, शेष समस्त भाव छोड़ने योग्य हैं-ऐसा सिद्धांत है।
भावार्थ:-लोकमें भी यह न्याय है कि-जो सुबुद्धि और न्यायवान होता है, वह दूसरेके धनादिको अपना नहीं कहता। इसीप्रकार जो सम्यग्ज्ञानी है, वह समस्त परद्रव्योंको अपना नहीं मानता, किन्तु अपने निजभावको ही अपना जानकर ग्रहण करता है।
अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ उदात्तचित्तचरितैः मोक्षार्थिभिः ] जिनके चित्तका चरित्र उदात्त (-उदार, उच्च, उज्ज्वल) है ऐसे मोक्षार्थी [अयम् सिद्धान्तः] इस सिद्धांतका [ सेव्यताम् ] सेवन करें कि- [अहम् शुद्धं चिन्मयम् एकम् परमं ज्योतिः एव सदा एव अस्मि ] मैं तो सदा शुद्ध चैतन्यमय एक परम ज्योति ही हूँ, तु] और
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