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मोक्ष अधिकार
४३३
(इन्द्रवजा) एकश्चितश्चिन्मय एव भावो भावाः परे ये किल ते परेषाम्। ग्राह्यस्ततश्चिन्मय एव भावो भावाः परे सर्वत एव हेयाः।। १८४ ।।
को णाम भणिज्ज बुहो णादुं सव्वे पराइए भावे। मज्झमिणं ति य वयणं जाणंतो अप्पयं सुद्धं ।। ३०० ।।
भावार्थ:-समस्त वस्तुयें सामान्यविशेषात्मक हैं। इसलिये उन्हें प्रतिभासनेवाली चेतना भी सामान्यप्रतिभासरूप ( –दर्शनरूप) और विशेषप्रतिभासरूप (-ज्ञानरूप) होना चाहिये। यदि चेतना अपनी दर्शनज्ञानरूपताको छोड़ दे तो चेतनाका ही अभाव होनेपर, या तो चेतन आत्माको (अपने चेतनागुणका अभाव होनेपर) जड़त्व आ जायेगा, अथवा तो व्यापकके अभावसे व्याप्य ऐसे आत्मा का अभाव हो जायेगा। (चेतना आत्माकी सर्व अवस्थाओंमें व्याप्त होनेसे व्यापक है और आत्मा चेतन होनेसे चेतनाका व्याप्य है। इसलिये चेतनाका अभाव होनेपर आत्माका भी अभाव हो जायेगा।) इसलिये चेतनाको दर्शनज्ञानस्वरूप ही मानना चाहिये।
यहाँ तात्पर्य यह है कि-सांख्यमतावलम्बी आदि कितने ही लोग सामान्य चेतनाको ही मानकर एकांत कथन करते हैं, उनका निषेध करनेके लिये यहाँ यह बताया गया है कि 'वस्तुका स्वरूप सामान्यविशेषरूप है इसलिये चेतनाको सामान्यविशेषरूप अंगीकार करना चाहिये' । १८३।
अब आगामी कथनका सूचक श्लोक कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ चितः ] चैतन्यका ( आत्माका) तो [ एकः चिन्मयः एव भावः ] एक चिन्मय ही भाव है और, [ ये परे भावाः ] जो अन्य भाव हैं [ ते किल परेषाम् ] वे वास्तवमें दूसरोंके भाव हैं ; [ ततः ] इसलिये [ चिन्मयः भावः एव ग्राह्यः ] (एक) चिन्मय भाव ही ग्रहण करनेयोग्य है, [ परे भावाः सर्वतः एव हेयाः ] अन्य भाव सर्वथा त्याज्य हैं। १८४। अब इस उपदेशकी गाथा कहते हैं:
सब भाव जो परकीय जाने, शुद्ध जाने आत्मको । वह कौन ज्ञानी ' मेरा है यह ' यों वचन बोले अहो ?।। ३००।।
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