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समयसार
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(अनुष्टुभ् ) इत्यज्ञानविमूढानां ज्ञानमात्रं प्रसाधयन्। आत्मतत्त्वमनेकान्तः स्वयमेवानुभूयते।। २६२ ।।
किञ्चन वाञ्छति ] उछलती हुई निर्मल चैतन्यपरिणतिसे भिन्न कुछ ( आत्मतत्त्वको) । चाहता है (किन्तु ऐसा कोई आत्मतत्त्व है नहीं); [ स्याद्वादी ] और स्याद्वादी तो, [ चिद्-वस्तु-वृत्ति-क्रमात् तद्-अनित्यतां परिमृशन् ] चैतन्यवस्तुकी वृत्तिके (परिणतिके, पर्यायके ) क्रम द्वारा उसकी अनित्यताका अनुभव करता हुआ, [ नित्यम् ज्ञानं अनित्यता परिगमे अपि उज्ज्वलम् आसादयति ] नित्य ऐसे ज्ञानको अनित्यतासे व्याप्त होनेपर भी उज्ज्वल (-निर्मल ) मानता है-अनुभव करता है।
भावार्थ:-एकांतवादी ज्ञानको सर्वथा एकाकार-नित्य प्राप्त करनेकी वांछासे, उत्पन्न होनेवाली और नाश होने वाली चैतन्यपरिणतिसे भिन्न कुछ ज्ञानको चाहता है; परंतु परिणामके अतिरिक्त कोई पृथक् परिणामी तो नहीं होता। स्याद्वादी तो यह मानता है कि-यद्यपि द्रव्यापेक्षासे ज्ञान नित्य है तथापि क्रमशः उत्पन्न होनेवाली और नष्ट होनेवाली चैतन्यपरिणतिके क्रमके कारण ज्ञान अनित्य भी है; ऐसा ही वस्तुस्वभाव है।
इसप्रकार अनित्यत्वका भंग कहा गया। २६१।
'पूर्वोक्त प्रकारसे अनेकांत, अज्ञानसे मूढ़ हुए जीवोंको ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व प्रसिद्ध कर देता है-समझा देता है' इस अर्थका काव्य कहा जाता है:
श्लोकार्थ:- [इति] इसप्रकार [अनेकान्तः ] अनेकांत अर्थात् स्याद्वाद [ अज्ञान-विमूढानां ज्ञानमात्रं आत्मतत्त्वम् प्रसाधयन् ] अज्ञानमूढ़ प्राणियोंको ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व प्रसिद्ध करता हुआ [ स्वयमेव अनुभूयते ] स्वयमेव अनुभव में आता है।
भावार्थ:-ज्ञानमात्र आत्मवस्तु अनेकांतमय है। परंतु अनादि कालसे प्राणी अपने आप अथवा एकांतवादका उपदेश सुनकर ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व संबंधी अनेक प्रकारसे पक्षपात करके ज्ञानमात्र आत्मतत्त्वका नाश करते हैं। उनको (अज्ञानी जीवोंको) स्याद्वाद ज्ञानमात्र आत्मतत्त्वका अनेकांतस्वरूपपना प्रगट करता हैसमझाता है। यदि अपने आत्माकी ओर दृष्टिपात करके अनुभव करके देखा जाये तो ( स्याद्वादके उपदेश अनुसार) ज्ञानमात्र आत्मवस्तु अपनेआप अनेक धर्मयुक्त प्रत्यक्ष अनुभवगोचर होती है। इसलिये हे प्रवीण पुरुषो! तुम ज्ञानको तत्स्वरूप, अतत्स्वरूप, एकस्वरूप, अनेकस्वरूप, अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावसे सत्स्वरूप, परके द्रव्य-क्षेत्रकाल-भावसे असत्स्वरूप, नित्यस्वरूप, अनित्यस्वरूप इत्यादि अनेक धर्मस्वरूप प्रत्यक्ष अनुभवगोचर करके प्रतीतिमें लाओ। यही सम्यग्ज्ञान है। सर्वथा एकांत मानना वह मिथ्याज्ञान है। २६२।
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