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पूर्वरंग
(अनुष्टुभ् ) आत्मनश्चिन्तयैवालं मेचकामेचकत्वयोः।
दर्शनज्ञानचारित्रैः साध्यसिद्धिर्न चान्यथा।। १९ ।। जह णाम को वि पुरिसो रायाणं जाणिऊण सद्दहदि। तो तं अणुचरदि पुणो अत्थत्थीओ पयत्तेण।। १७ ।। एवं हि जीवराया णादव्वो तह य सद्दहेदव्यो। अणुचरिदव्वो य पुणो सो चेव दु मोक्खकामेण।। १८ ।।
आत्माको प्रमाण-नयसे मेचक, अमेचक कहा है, उस चिंताको मिटाकर जैसे साध्यकी सिद्धि हो वैसा करना चाहिये यह आगेके श्लोक में कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [आत्मनः ] यह आत्मा [ मेचक-अमेचकत्वयोः] मेचक हैभेदरूप अनेकाकार है तथा अमेचक है,-अभेदरूप एकाकार है [ चिन्तया एव अलं] ऐसी चिंतासे बस हो। [साध्यसिद्धिः] साध्य आत्माकी सिद्धि तो [ दर्शन-ज्ञानचारित्रैः ] दर्शन, ज्ञान और चारित्र-इन तीन भावोंसे ही होती है, [न च अन्यथा] अन्य प्रकारसे नहीं, ( ये नियम है)।
भावार्थ:- आत्माके शुद्ध स्वभावकी साक्षात् प्राप्ति अथवा सर्वथा मोक्ष साध्य है। आत्मा मेचक है या अमेचक, ऐसा विचार ही मात्र करते रहनेसे साध्य सिद्ध नहीं होता; परंतु दर्शन अर्थात् शुद्ध स्वभावका अवलोकन, ज्ञान अर्थात् शुद्ध स्वभावका प्रत्यक्ष जानना, और चारित्र अर्थात् शुद्ध स्वभावमें स्थिरतासे ही साध्यकी सिद्धि होती है। यही मोक्षमार्ग है, अन्य नहीं।
व्यवहारी जन पर्यायमें-भेदमें समझते हैं इसलिये यहाँ ज्ञान, दर्शन, चारित्रके भेदसे समझाया है।। १९ ।। अब, इसी प्रयोजनको दो गाथाओंमें दृष्टांतपूर्वक कहते है:
ज्यों पुरुष कोई नृपतिको भी, जानकर श्रद्धा करे। फिर यत्नसे धन-अर्थ वो, अनुचरण राजाका करै।।१७।। जीवराजको यों जानना, फिर श्रद्धना इस रीतिसे। उसका ही करना अनुचरण, फिर मोक्ष अर्थी यत्नसे।।१८।।
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