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निर्जरा अधिकार
३२३
( उपजाति) अचिन्त्यशक्तिः स्वयमेव देवश्चिन्मात्रचिन्तामणिरेष यस्मात्। सर्वार्थसिद्धात्मतया विधत्ते ज्ञानी किमन्यस्य परिग्रहेण।। १४४ ।।
कुतो ज्ञानी परं न परिगृह्णातीति चेत्
को णाम भणिज्ज बुहो परदव्वं मम इमं हवदि दव्वं। अप्पाणमप्पणो परिगहं तु णियदं वियाणंतो।। २०७ ।।
सुखको जानता है, दूसरेका इसमें प्रवेश नहीं है।
अब, ज्ञानानुभवकी महिमाका और आगामी गाथाकी सूचनाका काव्य कहते
श्लोकार्थ:- [ यस्मात् ] क्योंकि [ एषः ] यह ( ज्ञानी) [ स्वयम् एव ] स्वयं ही [अचिन्त्यशक्तिः देवः ] अचिंत्य शक्तिवाला देव है और [ चिन्मात्र-चिन्तामणिः] चिन्मात्र चिंतामणि है इसलिये [ सर्व-अर्थ-सिद्ध-आत्मतया] जिसके सर्व अर्थ (प्रयोजन) सिद्ध हैं ऐसा स्वरूप होनेसे [ ज्ञानी ] ज्ञानी [अन्यस्य परिग्रहेण ] दूसरे परिग्रहसे [ किम् विधत्ते ] क्या करे ? ( कुछ भी करने का नहीं है।)
भावार्थ:-यह ज्ञानमूर्ति आत्मा स्वयं ही अनंत शक्तिका धारक देव है और स्वयं ही चैतन्यरूपी चिंतामणि होनेसे वांछित कार्यकी सिद्धि करनेवाला है; इसलिये ज्ञानीके सर्व प्रयोजन सिद्ध होनेसे उसे अन्य परिग्रहका सेवन करनेसे क्या साध्य है ? अर्थात् कुछ भी साध्य नहीं। ऐसा निश्चयनयका उपदेश है। १४४ ।
अब प्रश्न करता है कि ज्ञानी परको क्यों ग्रहण नहीं करता ? इसका उत्तर कहते हैं:
'परद्रव्य यह मुझ द्रव्य ' यों तो कौन ज्ञानीजन कहे । निज आत्मको निजका परिग्रह, जानता जो नियमसे ।। २०७।।
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