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पूर्वरंग
३१
नवतत्त्वेष्वेकत्वद्योतिना
अमूनि हि जीवादीनि नवतत्त्वानि भूतार्थेनाभिगतानि सम्यग्दर्शनं सम्पद्यन्त एव, अमीषु तीर्थप्रवृत्तिनिमित्तमभूतार्थनयेन व्यपदिश्यमानेषु जीवाजीवपुण्यपापास्रवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षलक्षणेषु भूतार्थनयेनैकत्वमुपानीय शुद्धनयत्वेन व्यवस्थापितस्यात्मनोऽनुभूतेरात्मख्यातिलक्षणायाः सम्पद्यमानत्वात्। तत्र विकार्यविकारकोभयं पुण्यं तथा पापम्, आस्राव्यास्रावकोभयमास्रवः, संवार्यसंवारकोभयं संवरः, निर्जर्यनिर्जरकोभयं निर्जरा, बन्ध्यबन्धकोभयं बन्ध:, मोच्यमोचकोभयं मोक्षः स्वयमेकस्य पुण्यपापास्रवसंवरनिर्जराबन्धमोक्षानुपपत्तेः। तदुभयं च जीवाजीवाविति । बहिर्दृष्ट्या नवतत्त्वान्यमूनि जीवपुद्गलयोरनादिबन्धपर्यायमुपेत्यैकत्वेनानुभूयमानतायां भूतार्थानि, अथ चैकजीवद्रव्यस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थानि ।
गाथार्थ:- [भूतार्थेन अभिगताः ] भूतार्थ नयसे ज्ञात [ जीवाजीवौ ] जीव, अजीव [च] और [ पुण्यपापं ] पुण्य, पाप [च] तथा [ आस्रवसंवरनिर्जराः] आस्रव, संवर, निर्जरा, [ बन्ध: ] बंध [ च ] और [ मोक्षः ] मोक्ष [ सम्यक्त्वम् ] - यह नव तत्त्व सम्यक्त्व हैं।
टीका:- यह जीवादि नवतत्त्व भूतार्थनयसे जाने हुवे सम्यग्दर्शन ही हैं ( यह नियम कहा ); क्योंकि तीर्थकी ( व्यवहार धर्मकी ) प्रवृत्ति के लिये अभूतार्थ (व्यवहार) नयसे कहा जाता है ऐसे नव तत्त्व - जिनके लक्षण जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष हैं - उनमें एकत्व प्रगट करनेवाले भूतार्थनयसे एकत्व प्राप्त करके, शुद्धनयरूपसे स्थापित आत्माकी अनुभूति - जिसका लक्षण आत्मख्याति है-वह प्राप्त होती है। ( शुद्धनयसे नवतत्त्वोंको जाननेसे आत्माकी अनुभूति होती है इस हेतुसे यह नियम कहा है। ) वहाँ, विकारी होने योग्य और विकार करनेवालादोनों पुण्य हैं, तथा दोनों पाप हैं, आस्रव होने योग्य और आस्रव करनेवाला- दोनों आस्रव हैं, संवररूप होने योग्य ( संवार्य ) और संवर करनेवाला ( संवारक) – दोनों संवर है, निर्जरा होनेके योग्य और निर्जरा करनेवाला- दोनों निर्जरा हैं, बँधनेके योग्य और बंधन करनेवाला- दोनों बंध हैं और मोक्ष होने योग्य तथा मोक्ष करनेवाला- दोनों मोक्ष हैं; क्योंकि एकके ही अपने आप पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्षकी उपपत्ति (सिद्धि ) नहीं बनती । वे दोनों जीव और अजीव हैं (अर्थात् उन दोनोंमें से एक जीव है और दूसरा अजीव )।
बाह्य (स्थूल) दृष्टिसे देखा जाये तो :- जीव - पुद्गलकी अनादि बंधपर्यायके समीप जाकर एकरूपसे अनुभव करने पर यह नवतत्त्व भूतार्थ हैं, सत्यार्थ हैं, और एक जीवद्रव्यके स्वभावके समीप जाकर अनुभव करनेपर वे अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं; ( वे जीवके एकाकार स्वरूपमें नहीं हैं; )
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