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समयसार
२८०
(अनुष्टुभ् ) इदमेवात्र तात्पर्य हेयः शुद्धनयो न हि। नास्ति बन्धस्तदत्यागात्तत्त्यागाद्बन्ध एव हि।। १२२ ।।
___ (शार्दूलविक्रीडित) धीरोदारमहिम्न्यनादिनिधने बोधे निबध्नन्धृतिं त्याज्यः शुद्धनयो न जातु कृतिभिः सर्वकषः कर्मणाम्। तत्रस्थाः स्वमरीचिचक्रमचिरात्संहृत्य निर्यद्वहि: पूर्ण ज्ञानघनौघमेकमचलं पश्यन्ति शान्तं महः।। १२३ ।।
अब इस सर्व कथनका तात्पर्यरूप श्लोक कहते हैं :---
श्लोकार्थ:- [अत्र ] यहाँ [ इदम् एव तात्पर्य ] यही तात्पर्य है कि [ शुद्धनयः न हि हेयः] शुद्धनय त्यागनेयोग्य नहीं है; [ हि] क्योंकि [ तत्-अत्यागात् बन्धः नास्ति ] उसके अत्यागसे ( कर्मका) बंध नहीं होता और [ तत्-त्यागात् बन्धः एव] और उसके त्यागसे बंध ही होता है। १२२ ।
'शुद्धनय त्याग करनेयोग्य नहीं है' इस अर्थको दृढ़ करने के लिये काव्य पुनः कहते हैं :---
श्लोकार्थ:- [धीर-उदार-महिम्नि अनादिनिधने बोधे धृति निबध्नन् शुद्धनयः] धीर (चलाचलता रहित) और उदार ( सर्व पदार्थों में विस्तारयुक्त) जिसकी महिमा है ऐसे अनादिनिधन ज्ञानमें स्थिरताको बाँधता हुआ ( अर्थात् ज्ञानमें परिणतिको स्थिर रखता हुआ) शुद्धनय- [कर्मणाम् सर्वकषः] जो कि कर्मोंका समूल नाश करनेवाला है- [ कृतिभिः ] पवित्र धर्मात्मा ( सम्यग्दृष्टि) पुरुषोंके द्वारा [जातु] कभी भी [न त्याज्यः ] छोड़नेयोग्य नहीं है। [ तत्रस्थाः] शुद्धनयमें स्थित वे पुरुष, [ बहि: निर्यत् स्वमरीचि-चक्रम् अचिरात् संहृत्य ] बाहर निकलती हुई अपनी ज्ञानकिरणोंके समुहको ( अर्थात् कर्मके निमित्तसे परोन्मुख जानेवाली ज्ञानकी विशेष व्यक्तियोंको) अल्पकालमे हीं समेटकर, [ पूर्ण ज्ञान-धन-ओधम् एकम् अचलं शान्तं महः ] पूर्ण, ज्ञानघनके पुंजरूप, एक, अचल, शांत तेजको-तेजःपुंजको- [पश्यन्ति ] देखते हैं अर्थात् अनुभव करते हैं।
भावार्थ:-शुद्धनय, ज्ञानके समस्त विशेषोंको गौण करके तथा परनिमित्तसे होनेवाले समस्त भावोंको गौण करके, आत्माको शुद्ध , नित्य, अभेदरूप, एक चैतन्यमात्र ग्रहण करता है और इसलिये परिणति शुद्धनयके विषयस्वरूप चैतन्यमात्र शुद्ध आत्मामें एकाग्र-स्थिर होती जाती है। इसप्रकार शुद्धनयका आश्रय लेनेवाले जीव बाहर निकलती हुई ज्ञानकी विशेष व्यक्तियोंका अल्पकाल में ही समेटकर, शुद्धनयमें (आत्माकी शुद्धताके अनुभवमें ) निर्विकल्पतया स्थिर होनेपर अपने
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