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( मन्दाक्रान्ता )
रागादीनां झगिति विगमात्सर्वतोऽप्यास्रवाणां नित्योद्योतं किमपि परमं वस्तु सम्पश्यतोऽन्तः। स्फारस्फारैः स्वरसविसरै: प्लावयत्सर्वभावानालोकान्तादचलमतुलं ज्ञानमुन्मग्नमेतत्।। १२४ ।।
इति आस्रवो निष्क्रान्तः।
आत्मा को सर्व कर्मोंसे भिन्न केवलज्ञानस्वरूप, अमूर्तिक पुरुषाकार, वीतराग ज्ञानमूर्तिस्वरूप देखते हैं और शुक्लध्यानमें प्रवृत्ति करके अंतर्मुहूर्तमें केवलज्ञान प्रगट करते हैं। शुद्धनयका ऐसा माहात्म्य है। इसलिये श्री गुरुओं का यह उपदेश है कि जबतक शुद्धयके अवलंबन से केवलज्ञान उत्पन्न न हो तबतक सम्यग्दृष्टि जीवोंको शुद्धनयका त्याग नहीं करना चाहिये । १२३ ।
अब, आस्रवोंका सर्वथा नाश करनेसे जो ज्ञान प्रगट हुआ उस ज्ञानकी महिमाका सूचक काव्य कहते हैं:
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श्लोकार्थ:- [ नित्य-उद्योतं ] जिसका उद्योत (प्रकाश) नित्य है ऐसी [ किम् अपि परमं वस्तु] किसी परम वस्तुको [ अन्तः सम्पश्यतः ] अंतरंगमें देखनेवाले पुरुषको, [रागादीनां आस्रवाणां ] रागादि आस्रवोंका [ झगिति ] शीघ्र ही [ सर्वतः अपि ] सर्व प्रकार [ विगमात् ] नाश होनेसे, [ एतत् ज्ञानम् ] यह ज्ञान [ उन्मग्नम् ] प्रगट हुआ - [ स्फारस्फारै: ] कि जो ज्ञान अत्यंतात्यंत ( - अनंतानंत ) विस्तारको प्राप्त [ स्वरसविसरैः] निजरसके प्रसारसे [ आ-लोक - अन्तात् ] लोकके अंततकके [सर्वभावान्] सर्व भावोंको [ प्लावयत् ] व्याप्त कर देता है अर्थात् सर्व पदार्थोंको जानता है, [ अचलम् ] वह ज्ञान प्रगट हुआ तभीसे सदाकाल अचल है अर्थात् प्रगट होनेके पश्चात् सदा ज्यों का त्यों ही बना रहता है - चलायमान नहीं होता, और [ अतुलं ] वह ज्ञान अतुल है अर्थात् उसके समान दूसरा कोई नहीं है।
भावार्थ:-जो पुरुष अंतरंगमें चैतन्यमात्र परम वस्तुको देखता है और शुद्धनयके आलंबन द्वारा उसमें एकाग्र होता जाता है उस पुरुषको, तत्काल सर्व रागादिक आस्रवभावोंका सर्वथा अभाव होकर, सर्व अतीत, अनागत और वर्तमान पदार्थोंको जाननेवाला निश्चल, अतुल केवलज्ञान प्रगट होता है । वह ज्ञान सबसे महान है, उसके समान दूसरा कोई नहीं है। १२४ ।
टीका:
:- इसप्रकार आस्रव ( रंगभूमिमेंसे) बाहर निकल गया ।
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