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इति आस्रवप्ररूपकः चतुर्थोऽङ्कः।।
समयसार
श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचितायां
समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ
भावार्थ:-रंगभूमिमें आस्रवका स्वांग आया था उसे ज्ञानने उसके यथार्थ
स्वरूपमें जान लिया इसलिये वह बाहर निकल गया ।
योग कषाय मिथ्यात्व असंयम आस्रव द्रव्यत आगम गाये, राग विरोध विमोह विभाव अज्ञानमयी यह भाव जताये; जे मुनिराज करें इन पाल सुरिद्धि समाज लये सिव थाये, काय नवाय नमूं चित लाय कहूं जय पाल लहूँ मन भाये ।
इसप्रकार श्री समयसारकी ( श्रीमद्भगवत्कुंदकुंदाचार्यदेवप्रणीत श्रीसमयसार परमागमकी) श्रीमद् अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामकी टीकामें आस्रवका प्ररूपक चौथा अंक समाप्त हुआ ।
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