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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates आस्रव अधिकार २७९ यथा पुरुषेणाहारो गृहीतः परिणमति सोऽनेकविधम्। मांसवसारुधिरादीन् भावान् उदराग्निसंयुक्तः ।। १७९ ।। तथा ज्ञानिनस्तु पूर्व ये बद्धाः प्रत्यया बहुविकल्पम्। बध्नन्ति कर्म ते नयपरिहीनास्तु ते जीवाः।। १८० ।। यदा तु शुद्धनयात् परिहीणो भवति ज्ञानी तदा तस्य रागादिसद्भावात्, पूर्वबद्धाः द्रव्यप्रत्ययाः, स्वस्य हेतुत्वहेतुसद्भावे हेतुमद्भावस्यानिवार्यत्वात्, ज्ञानावरणादिभावैः पुद्गलकर्म बन्धं परिणमयन्ति। न चैतदप्रसिद्धं , पुरुषगृहीताहारस्योदराग्निना रसरुधिरमांसादिभावैः परिणामकरणस्य दर्शनात्।। गाथार्थ:-[ यथा ] जैसे [ पुरुषेण ] पुरुषके द्वारा [ गृहीतः ] ग्रहण किया हुआ [ आहारः] जो आहार है [ सः ] वह [ उदराग्निसंयुक्तः ] उदराग्निसे संयुक्त होता हुआ [ अनेकविधम् ] अनेक प्रकार [ मांसवसारुधिरादीन् ] मांस, चर्बी, रुधिर आदि [ भावान् ] भावरूप [परिणमति] परिणमन करता है, [ तथा तु] इसीप्रकार [ ज्ञानिनः] ज्ञानियोंके [ पूर्व बद्धाः ] पूर्वबद्ध [ये प्रत्ययाः] जो द्रव्यास्रव हैं [ ते] वे [ बहुविकल्पम् ] अनेक प्रकारके [कर्म] कर्म [ बध्नन्ति ] बाँधते हैं;- [ते जीवाः] ऐसे जीव [ नयपरिहीनाः तु] शुद्धनयसे च्युत हैं। (ज्ञानी शुद्धनयसे च्युत होवे तो उसके कर्म बँधते हैं।] टीका:-जब ज्ञानी शुद्धनयसे च्युत हो तब उसके रागादिभावोंका सद्भाव होता है, इसलिये पूर्वबद्ध द्रव्यप्रत्यय, अपने (-द्रव्यप्रत्ययोंके) कर्मबंधके हेतुत्वके हेतुका सद्भाव होनेपर हेतुमान भावका (-कार्यभावका) अनिवार्यत्व होनेसे , ज्ञानावरणादि भावसे पुद्गलकर्मको बंधरूप परिणमित करते हैं। और यह अप्रसिद्ध भी नहीं है ( अर्थात् इसका दृष्टांत जगतमें प्रसिद्ध है-सर्व ज्ञात है); क्योंकि मनुष्यके द्वारा ग्रहण किये गये आहारको जठराग्नि रस , रुधिर, माँस इत्यादिरूपमें परिणमित करती है यह देखा जाता है। भावार्थ:-जब ज्ञानी शुद्धनयसे च्युत हो तब उसके रागादिभावोंका सद्भाव होता है, रागादिभावोंके निमित्तसे द्रव्यास्रव अवश्य कर्मबंधके कारण होते हैं और इसलिये कार्मणवर्गणा बंधरूप परिणमित होती है। टीकामें जो यह कहा है कि " द्रव्यप्रत्यय पुद्गलकर्मको बंधरूप परिणमित कराते हैं", सो निमित्तकी अपेक्षा से कहा है। वहाँ यह समझना चाहिये कि “द्रव्यप्रत्ययोंके निमित्तभूत होनेपर कार्मणवर्गणा स्वयं बंधरूप परिणमित होती है”। * रागादिसदभावे। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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