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समयसार
२७८
जह पुरिसेणाहारो गहिदो परिणमदि सो अणेयविहं। मंसवसारुहिरादी भावे उदरग्गिसंजुत्तो।।१७९ ।। तह णाणिस्स दु पुव्वं जे बद्धा पच्चया बहुवियप्पं। बझंते कम्मं ते णयपरिहीणा दु ते जीवा।। १८० ।।
भावार्थ:-शुद्धनयसे च्युत होना अर्थात् 'मैं शुद्ध हूँ' ऐसे परिणमनसे छूटकर अशुद्धरूप परिणमित होना अर्थात् मिथ्यादृष्टि हो जाना। ऐसा होनेपर, जीवके मिथ्यात्व संबंधी रागादिक उत्पन्न होते हैं, जिससे द्रव्यास्रव कर्मबंधके कारण होते हैं और उससे अनेक प्रकारके कर्म बँधते हैं। इसप्रकार यहाँ शद्धनयसे च्यत होनेका अर्थ शुद्धताकी प्रतीतिसे ( सम्यक्त्वसे) च्युत होना समझना चाहिये। यहाँ उपयोगकी अपेक्षा गौण है, अर्थात् शुद्धनयसे च्युत होना अर्थात् शुद्ध उपयोगसे च्युत होना ऐसा अर्थ मुख्य नहीं है; क्योंकि शुद्धोपयोगरूप रहनेका काल अल्प रहता है इसलिये मात्र अल्प काल शुद्धोपयोगरूप रहकर और फिर उससे छूटकर ज्ञान अन्य ज्ञेयोमें उपयुक्त हो तो मिथ्यात्वके बिना जो रागका अंश है वह अभिप्रायपूर्वक नहीं है इसलिये ज्ञानीके मात्र अल्प बंध होता है और अल्प बंध संसारका कारण नहीं है। इसलिये यहाँ उपयोगकी अपेक्षा मुख्य नहीं है।
अब यदि उपयोगकी अपेक्षा ली जाये तो इसप्रकार अर्थ घटित होता है:-यदि जीव शुद्धस्वरूपके निर्विकल्प अनुभवसे छूटे परंतु सम्यक्त्वसे न छूटे तो उसे चारित्रमोहके रागसे कुछ बंध होता है। यद्यपि वह बंध अज्ञानके पक्षमें नहीं है तथापि वह बंध तो है ही। इसलिये उसे मिटानेके लिये सम्यग्दृष्टि ज्ञानीको शुद्धनयसे न छूटने का अर्थात् शुद्धोपयोगमें लीन रहने का उपदेश है। केवलज्ञान होनेपर साक्षात् शुद्धनय होता है। १२१।
अब इसी अर्थको दृष्टांत द्वारा दृढ़ करते हैं :---
जनसे ग्रहित अहार ज्यों , उदराग्निके संयोग से । बहुभेद मांस , वसा अरु , रुधिरादि भावों परिणमे ।।१७९ ।। त्यों ज्ञानीके भी पूर्वकालनिबद्ध जो प्रत्यय रहे। बहुभेद बांधे कर्म , जो जीव शुद्धनयपरिच्युत बने ।। १८० ।।
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