________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
卐5555555555555555555555
-१जीव-अजीव अधिकार
卐
अथ जीवाजीवावेकीभूतौ प्रविशतः।
(शार्दूलविक्रीडित) जीवाजीवविवेकपुष्कलदृशा प्रत्याययत्पार्षदान् आसंसारनिबद्धबन्धनविधिध्वंसाद्विशुद्ध स्फुटत्। आत्माराममनन्तधाम महसाध्यक्षेण नित्योदितं धीरोदात्तमनाकुलं विलसति ज्ञानं मनो हादयत्।। ३३ ।।
अब जीवद्रव्य और अजीवद्रव्य-वे दोनों एक होकर रंगभूमिमें प्रवेश करते हैं।
इसके आरम्भमें मंगलके आशयसे (काव्य द्वारा) आचार्यदेव ज्ञानकी महिमा करते हैं कि सर्व वस्तुओंको जाननेवाला यह ज्ञान है वह जीव-अजीवके सर्व स्वांगोंको भलीभाँति पहिचानता है। ऐसा (सभी स्वांगोंको जाननेवाला) सम्यग्ज्ञान प्रगट होता है-इस अर्थरूप काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ ज्ञानं ] ज्ञान है वह [ मनो हादयत् ] मनको आनंदरूप करता हुआ [ विलसति] प्रगट होता है। वह [ पार्षदान् ] जीव-अजीवके स्वांगको दखनेवाले महापुरुषोंके [ जीव-अजीव-विवेक-पुष्कल-दृशा] जीव-अजीवके भेदको देखनेवाली अति उज्ज्वल निर्दोष दृष्टि के द्वारा [ प्रत्याययत् ] भिन्न द्रव्यकी प्रतीति उत्पन्न कर रहा है। [आसंसार-निबद्ध-बन्धन-विधि-ध्वंसात् ] अनादि संसारसे जिसका बंधन दृढ़ बँधा हुआ है ऐसे ज्ञानावरणादि कर्मोंके नाशसे [ विशुद्धं ] विशुद्ध हुआ है, [ स्फुटत् ] स्फुट हुआ है-जैसे फूलकी कली खिलती है उसीप्रकार विकासरूप है। और [ आत्मआरामम् ] उसका रमण करने का क्रीड़ावन आत्मा ही है, अर्थात् उसमें अनंत ज्ञेयोंके आकार आकर झलकते हैं तथापि वह अपने स्वरूपमें ही रमता है; [ अनन्तधाम] उसका प्रकाश अनंत है; और वह [ अध्यक्षेण महसा नित्य-उदितं ] प्रत्यक्ष तेजसे नित्य उदयरूप है। तथा वह धीर है, उदात्त (उच्च) है और इसलिये अनाकुल है सर्व इच्छाओंसे रहित निराकुल है। (यहाँ [धीरोदात्तम् ] धीर , उदात्त [अनाकुलं] अनाकुल--यह तीन विशेषण शांतरूप नृत्यके आभूषण जानना।)
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com