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आस्रव अधिकार
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कथं ज्ञानी निरास्रव इति चेत्
चउविह अणेयभेयं बंधते णाणदंसणगुणेहिं। समए समए जम्हा तेण अबंधो त्ति णाणी दु।। १७० ।।
चतुर्विधा अनेकभेदं बध्नन्ति ज्ञानदर्शनगुणाभ्याम्। समये समये यस्मात् तेनाबन्ध इति ज्ञानी तु।।१७० ।।
ज्ञानी हि तावदासवभावभावनाभिप्रायाभावान्निराम्रव एव। यत्तु तस्यापि द्रव्यप्रत्ययाः प्रतिसमयमनेकप्रकारं पुद्गलकर्म बध्नन्ति , तत्र ज्ञानगुणपरिणाम एव हेतुः।
कथं ज्ञानगुणपरिणामो बन्धहेतुरिति चेत्
जम्हा दु जहण्णादो णाणगुणादो पुणो वि परिणमदि। अण्णत्तं णाणगुणो तेण दु सो बंधगो भणिदो।।१७१ ।।
अब यह प्रश्न होता है कि ज्ञानी निरास्त्रव कैसे है ? उसके उत्तरस्वरूप गाथा कहते हैं :---
चउविधानव समय समय जु, ज्ञानदर्शन गुणहिसे । बहु भेद बाँधे कर्म , इससे ज्ञानि बंधक नाहिं है ।। १७०।।
गाथार्थ:- [यस्मात् ] क्योंकि [चतुर्विधाः ] चार प्रकारके द्रव्यास्रव [ ज्ञानदर्शनगुणाभ्याम् ] ज्ञानदर्शनगुणोंके द्वारा [ समये समये] समय समय पर [अनेकभेदं] अनेक प्रकारका कर्म [ बध्नन्ति ] बाँधते हैं [ तेन] इसलिये [ ज्ञानी तु] ज्ञानी तो [ अबन्धः इति ] अबंध है।
टीका:-पहले, ज्ञानी तो आस्रवभावकी भावनाके अभिप्रायके अभावके कारण निरास्त्रव ही है; परंतु जो उसे भी द्रव्यप्रत्यय प्रति समय अनेक प्रकारका पुद्गलकर्म बाँधते हैं, वहाँ ज्ञानगुणका परिणमन ही कारण है।
__ अब यह प्रश्न होता है कि ज्ञानगुणका परिणमन बंधका कारण कैसे है ? उसके उत्तरकी गाथा कहते हैं :---
जो ज्ञानगुणकी जघन्यतामें, वर्तता गुण ज्ञानका । फिरफिर प्रणमता अन्यरूप जु, उसहिसे बंधक कहा ।। १७१।।
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