________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
निर्जरा अधिकार
३४७
सम्माद्दिट्ठी जीवा णिस्संका होति णिब्भया तेण। सत्तभयविप्पमुक्का जम्हा तम्हा दु णिस्संका।। २२८ ।। सम्यग्दृष्टयो जीवा निरशङ्का भवन्ति निर्भयास्तेन। सप्तभयविप्रमुक्ता यस्मात्तस्मात्तु निरशङ्काः।। २२८ ।।
येन नित्यमेव सम्यग्दृष्टयः सकलकर्मफलनिरभिलाषा: सन्तोऽत्यन्तकर्मनिरपेक्षतया वर्तन्ते, तेन नूनमेते अत्यन्तनिरशङ्कदारुणाध्यवसायाः सन्तोऽत्यन्तनिर्भयाः सम्भाव्यन्ते।
(शार्दूलविक्रीडित) लोकः शाश्वत एक एष सकलव्यक्तो विविक्तात्मनश्चिल्लोकं स्वयमेव केवलमयं यल्लोकयत्येककः। लोकोऽयं न तवापरस्तदपरस्तस्यास्ति तगीः कुतो निरशङ्कः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति।। १५५ ।।
सम्यक्ति जीव होते निःशंक्ति इसहि से निर्भय रहे । हैं सप्तभयप्रविमुक्त वे, इसही से वे निःशंक हैं ।। २२८ ।।
गाथार्थ:- [ सम्यग्दृष्टयः जीवाः] सम्यग्दृष्टि जीव [ निरशङ्काः भवन्ति ] निःशंक होते हैं, [तेन ] इसलिये [ निर्भयाः] निर्भय होते हैं; [ तु] और [ यस्मात् ] क्योंकि वे [ सप्तभयविप्रमुक्ताः ] सप्त भयोंसे रहित होते हैं [तस्मात् ] इसलिये [ निरशङ्काः ] निःशंक होते हैं ( –अडोल होते हैं)।
टीका:-क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव सदा ही सर्व कर्मोंके फलके प्रति निरभिलाष होते हैं इसलिये वे कर्मके प्रति अत्यंत निरपेक्षतया वर्तते हैं, इसलिये वास्तवमें वे अत्यंत निःशंक दारुण ( सुदृढ़) निश्चयवाले होनेसे अत्यंत निर्भय हैं ऐसी संभावना की जाती है (अर्थात् ऐसा योग्यतया माना जाता है)।
अब सात भयोंके कलशरूप काव्य कहे जाते हैं, उसमेंसे पहले इहलोक और परलोकके भयोंका एक काव्य कहते हैं:
श्लोकार्थ:- [ एषः ] यह चित्स्वरूप लोक ही [ विविक्तात्मनः ] भिन्न आत्माका (परसे भिन्नरूप परिणमित होते हुए आत्माका) [ शाश्वतः एकः सकल-व्यक्तः लोकः] शाश्वत, एक और सकलव्यक्त ( –सर्वकालमें प्रगट) लोक है; [ यत् ] क्योंकि [ केवलम् चित्-लोकं ] मात्र चित्स्वरूप लोकको [अयं स्वयमेव एकक: लोकयति] यह ज्ञानी
आत्मा स्वयमेव एकाकी देखता है-अनुभव करता है। यह चित्स्वरूप लोक ही तेरा है, [ तद्-अपरः ] उससे भिन्न दूसरा कोई लोक- [अयं लोकः अपर: ] यह लोक
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com